बनारस, काशी, वाराणसी सब एक ही हैं, लेकिन जब बात इस शहर की हो, तो मानो सबकुछ बहुत पीछे छूट जाता है। हम खुद को इतने बौने और अज्ञानी नजर आते हैं, जैसे आकाशगंगा में चींटी या उससे भी छोटे। खैर, विषयांतर होने से पहले लौटते हैं काशी पर, जिसके रक्षण की जिम्मेदारी युग-युगांतर से यहां के कोतवाल "काल भैरव" पर है। जी हां, समूचे जगत को धर्म-अध्यात्म का पाठ पढ़ाने वाली सबसे न्यारी हमारी प्यारी काशी नगरी की आन-बान-शान हैं काल भैरव। तो चलिए, अपने अल्प ज्ञान से काशी के कोतवाल को समझने की कोशिश करते हैं।
शिव की क्रोधाग्नि से उत्पन्न हुए काल भैरव को काशी का 'कोतवाल' कहा जाता है। काल भैरव के दर्शन व आराधना के बिना काशी विश्वनाथ की पूजा-अर्चना व काशी-वास पूर्ण सफल नहीँ माना जाता है। मान्यताओं के अनुसार काशी के व्यवस्था संचालन की जिम्मेदारी शिव के गण संभाले हुए हैं। उनके गण भैरव हैं, जिनकी संख्या 64 है एवं इनके मुखिया काल भैरव हैं। शिव के सातवें घेरे में बाबा काल भैरव का स्थान है। इनका वाहन कुत्ता है, इसलिए कहा जाता है, यहां विचरण करने वाले तमाम कुत्ते काशी के पहरेदार हैं।
प्रादुर्भाव की कथा
भारतीय वाङ्गमय में विवरण मिलता है कि ब्रह्मा और कृतु के विवाद के समय ज्योतिर्निगात्मक शिव का जगत् प्रादुर्भाव हुआ, जब ब्रह्मा जी ने अहंकारवश अपने पांचवें मुख से शिवजी का अपमान किया, तब उनको दंड देने के लिए उसी समय भगवान शिव की आज्ञा से भैरव की उत्पत्ति हुई। भगवान शिव ने भैरव जी को वरदान देकर उन्हें ब्रह्मा जी को दंड देने का आदेश दिया। सदाशिव ने भैरव का नामकरण करते हुए स्पष्ट किया कि आपसे काल भी डरेगा। इस कारण इस लोक में ‘काल भैरव’ के नाम से आपकी प्रसिद्धि होगी। काशी में श्री चित्रगुप्त और जयराम का कोई अधिकार तो नहीं होगा, वरन् काशी में पाप-पुण्य का लेखा-जोखा और पापी व्यक्ति के शमन-दमन का एकमेव अधिकार आपके हाथों में होगा। विवरण है कि भैरवजी ने ब्रह्मा जी का पांचवां सिर त्रिशूल से काट दिया। ऐसे कहीं-कहीं यह भी चर्चा है कि श्री भैरव ने अपने बाएं हाथ के नख (नाखून) से ब्रह्माजी का पांचवां सिर नोच लिया। लेकिन इसके बाद वह कपाल इन्हीं की हाथों से सटा रहा और प्रभु भैरव जी को ‘ब्रह्म हत्या’ का पाप लग गया। सभी लोकों और तीर्थ उपतीर्थ में भ्रमण करते-करते जब भैरव बैकुंठ लोक पहुंचे, तो उन्हें भगवान विष्णु ने भगवान शंकर के त्रिशूल पर विराजमान तीनों लोकों से न्यारी काशीपुरी जाने का परामर्श दिया। इसके बाद भैरव काशी तीर्थ आए। काशी में इनके हाथ से जहां वह कपाल विमुक्त हुआ वह तीर्थ कपाल मोचन के नाम से जगतख्यात हुआ। काशी के तीर्थों में कपालमोचन एक पुरातन तीर्थ है, जिसके दर्शन से भैरव कथा की वह घटना जीवंत हो जाती है।
मंदिर निर्माण का इतिहास
प्राच्य काल में बाबा काल भैरव का मंदिर कब और किसने बनाया स्पष्ट नहीं होता, पर अकबर के शासन काल में संपूर्ण काशी क्षेत्र में राजा मानसिंह ने सवा लाख देवालयों का या तो निर्माण कराया या नव शृंगार। उसी में इस देवालय की भी गणना की जाती है। वर्तमान मंदिर को साल 1715 में दोबारा बाजीराव पेशवा ने बनवाया था। मंदिर की बनावट तंत्र शैली के आधार पर है और प्रथम दर्शन से ही इसकी प्राचीनता का स्पष्ट अनुभव होता है। यहां गर्भगृह में ऊंचे पाठ पीठ पर कालभैरव की आकर्षक व प्रभावोत्पादक विग्रह देखी जा सकती है, जो चांदी से मढ़ी है और भक्त वात्सल भाव से ओत-प्रोत है। ईशान कोण पर तंत्र साधना करने की महत्वपूर्ण स्थली है।
भैरव तीर्थों में सर्वोच्च
काल भैरव मंदिर को देश के ख्याति प्राप्त भैरव तीर्थों में प्रथम स्थान पर परिगणित किया जाता है। धर्मज्ञों की राय में देश भर में काल भैरव के त्रिप्रधान तीर्थ हैं, उज्जैन के भैरवगढ़ के काल भैरव, काशी के काल भैरव और गया के श्री भैरवस्थान के काल भैरव; पर इन तीनों में और संपूर्ण देश के भैरव तीर्थों का श्री पति ‘काल भैरव’ को स्वीकारा जाता है।
भक्तों की उमड़ती है भीड़
ऐसे तो हरेक दिन भक्तों का यहां आगमन होता है, पर प्रत्येक वर्ष मार्गशीर्ष कृष्ण अष्टमी को होने वाले वार्षिक महापूजन में यहां दूर-देश के भक्तों के आगमन से मेला लग जाता है। माना जाता है कि मार्गशीर्ष के कृष्णपक्ष की अष्टमी को सायंकाल बाबा काल भैरव उत्पन्न हुए हैं। इस दिन को बाबा के जन्मोत्सव के रूप में धूमधाम से मनाया जाता है। इस दौरान बाबा की प्रतिमा का कई प्रकार के सुगन्धित फूलों से आकर्षक ढंग का श्रृंगार किया जाता है। इसी दिन को ही भैरवाष्टमी भी कहते हैं और इनकी वार्षिक यात्रा भी होती है। प्रत्येक रविवार को बाबा काल भैरव के दर्शन-पूजन का विशेष विधान है। वाराणसी में नियुक्त होने वाले तमाम बड़े प्रशासनिक एवं पुलिस अधिकारी सर्वप्रथम बाबा विश्वनाथ एवं काल भैरव का दर्शन कर आशीर्वाद लेते हैं।
यहां चढ़ती है मदिरा
मान्यता है कि काल भैरव के दर्शन मात्र से साढ़े-साती, अढ़ैया जैसे दंडों से बचा जा सकता है। बाबा को सरसों के तेल का दीप, ऊर्द की दाल का बड़ा, बेसन के लड्डू चढ़ते हैं। व्यवसाय में तरक्की के लिए चीनी का घोड़ा और मदिरा चढ़ाई जाती है। मदिरा उन्हें बहुत प्रिय है। बाबा के यहां मिलने वाले काले धागे को पहनने से नजर नहीं लगती, भूत-प्रेत बाधा से मुक्ति मिलती है।
परिसर के अन्य मन्दिर
मुख्य मंदिर के आगे बड़े महावीर जी व दाहिने मंडप में योगीश्वरी देवी का स्थान है। मंदिर के पिछले द्वार के बाहर क्षेत्रपाल भैरव की मूर्ति है। पास में ही दंडपाणि मंदिर, कामरूप, नवग्रहेश्वर महादेव व थोड़ी दूर पर कालेश्वर महादेव का पुरातन स्थान है। स्वयं भैरव जी के इस मंदिर में एक से बढ़कर एक पुरा व तांत्रिक महत्व के विग्रह शोभायमान हैं। ज्ञातव्य है कि काशी के देवी-देवताओं में श्री काशी विश्वनाथ सहित 15 विनायक, 9 दुर्गा, 8 गौरी, 12 आदित्य व 16 केशव के साथ अष्ट भैरव की गणना की जाती है और इनके स्थान भी यहां निर्दिष्ट हैं। इनके नाम बटुक भैरव, क्रोध भैरव, दंडपाणि (शूल पाणी), भूत भैरव (भीषण भैरव), कपाल भैरव, चंड भैरव, आसितांग भैरव व आनंद भैरव मिलते हैं।
पहुंचने का साधन
मंदिर शहर के उत्तरी भाग में विशेश्वरगंज स्थित के 32/22 भैरवनाथ में है। ऑटो द्वारा मैदागिन पहुंचकर वहां से पैदल ही काल भैरव के मंदिर तक पहुंचा जा सकता है। यहां स्थल मार्ग जलमार्ग (गंगा जी में नाव से होकर) से आना भी सहज है।
मंदिर प्रातःकाल 5 से दोपहर डेढ़ बजे तक एवं सायंकाल साढ़े 4 से रात साढ़े 9 बजे तक खुला रहता है।
विशेष
- मार्गशीष महीने के कृष्ण पक्ष की अष्टमी को यहां रात में बाबा काल भैरव की सवा लाख बत्ती से महाआरती की जाती है।
- बाबा विश्वनाथ के बाद बाबा काल भैरव का सबसे बड़ा स्थान है। इस शहर के राजा हैं और बाबा काल भैरव इस शहर के सेनापति हैं।
- पौराणिक मान्यताओं के अनुसार बाबा भैरव ने जब काल भैरव का रूप धारण किया, तो नेत्रों से क्रोधाग्नि प्रज्वलित हो रही थी। इस अग्नि से लोगों को बचाने के लिए शिव जी ने काल भैरव से बोला कि अपना मुख महाश्मशान मणिकर्णिका की ओर करिए, तब से लेकर आज तक श्मशान की अग्नि बुझी नहीं है।
अस्तु ! देश भर के भैरव तीर्थों में काशी के काल भैरव की महत्ता अक्षुण्ण है। भैरव पूजन व साधना-आराधना का यह स्थल जागृत है, तभी तो भैरव कृपा से काम में विघ्न नहीं होता और समस्त मार्ग सहज ही खुल जाते हैं।
-सोनी सिंह
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