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जय काली कलकत्ते वाली



यूं तो जगतजननी देवी भगवती का प्रत्येक शक्तिपीठ अपनी विलक्षणता के लिए विश्वप्रसिद्ध है, पर कोलकाता के कालीघाट की अलौकिकता का उदाहरण शायद ही हो। धार्मिक, आध्यात्मिक, दार्शनिक, सांस्कृतिक, ऐतिहासिक, वैचारिक, साहित्यिक, आदि विविधताओं से सजे इस शहर की उत्पत्ति व नामकरण के वक्त से ही देवी भगवती शक्तिस्वरूपा मां काली का आशीर्वाद प्राप्त है। मां भवानी के उपासकों की आस्था एवं समर्पण से लबरेज यहां के जनजीवन पर सहज ही माता काली की छत्रछाया महसूस की जा सकती है। उत्सवों के लिए प्रख्यात इस शहर में दीपोत्सव में दीपदान के साथ-साथ विश्वप्रसिद्ध काली पूजा की विशेष धूम रहती है। काली पूजा पर जहां समूचा कोलकाता निखर उठता है, वहीं कालीघाट की आभा देखते ही बनती है। यहां पहुंचने के लिए सबसे आसान साधन मेट्रो है, इसके लिए कालीघाट स्टेशन उतरना पड़ता है। मंदिर की ओर बढऩे पर माला फूल प्रसाद आदि की दुकानें प्रवेश पथ को संकरा बना देती हैं।


कालीघाट 51 शक्तिपीठों में से एक है। सती के अंग जिन स्थानों पर गिरे, वे स्थान शक्तिपीठ कहलाए। पौराणिक कथाओं के अनुसार देवी सती ने पिता द्वारा पति देवाधिदेव शिव के अपमान के बाद आत्मसम्मान के लिए खुद को स्वाहा कर लिया। भगवान शिव को वहां पहुंचने में विलंब हो गया, तब तक सती का शरीर जल चुका था। उन्होंने सती का जला शरीर उठाकर तांडव शुरू कर दिया। सृष्टिï विनाश के भय से घबराए देवताओं ने श्रीहरि विष्णु से देवाधिदेव को मनाने की विनती की। श्रीहरि ने सती के शरीर के 51 टुकड़े कर दिए, इस पर शिव ने नृत्य रोक दिया। कहते हैं, सती के दाहिने पैर की अंगुलियां यहां 'हुगली नाम से प्रसिद्ध पावन 'गंगा नदी के किनारे गिरीं, जो वर्तमान शहर का दक्षिणी भाग है। इस शक्ति 'पीठमाला को कालीघाट के रूप में पहचान मिली। इस पूरे क्षेत्र को कालीकाता नाम मिला, जो आगे चलकर कोलकाता कहलाया।

इस प्रकार काली और कोलकाता का रिश्ता सदियों पुराना है। 15वीं सदी से 18वीं सदी तक की बांग्ला किताबों और सरकारी दस्तावेजों में काली मंदिर का जिक्र है। 1742 में अंग्रेेजों द्वारा बनवाए गए गाइड-मैप में कालीघाट मार्ग दर्शाया गया है। वर्तमान मंदिर करीब 200 वर्ष पुराना है। किंवदंती के मुताबिक 24 परगना जिले के बरीशा गांव के ब्राह्मण जमींदार सवर्ण राय चौधरी के पूर्वज संतोष राय ने इस स्थान की खोज की। उन्हें यहां भागीरथी नदी के किनारे एक तेज प्रकाश-पुंज नजर आया। प्रकाश-पुंज को खोजने पर उन्हें काले पत्थर का टुकड़ा मिला, जिस पर दाहिने पैर की अंगुलियां अंकित थीं। वे उस चमत्कारी शिलाखंड की देवी रूप में उपासना करने लगे। बाद में सवर्ण राय चौधरी ने 1809 में यहां मंदिर निर्माण कराया। मंदिर का वर्तमान प्रवेश द्वार व तोरण का निर्माण बिड़लाजी ने कराया, जिसका नवीनीकरण 1971 में किया गया। काली मंदिर के सामने नकुलेश्वर भैरव मंदिर है, जो 1805 में बना था। यहां स्थापित स्वयंभूलिंगम भी काली की प्रतिमा के पास ही नदी किनारे मिला था।

पुराणों में काली को शक्ति का रौद्रावतार मानते हैं और प्रतिमा या छवि में देवी को विकराल काले रूप में गले में मुंडमाल और कमर में कटे हाथों का घाघरा पहने, एक हाथ में रक्त से सना खड्ग और दूसरे में खप्पर धारण किए, लेटे हुए शंकर पर खड़ी जिह्वा निकाले दर्शाया जाता है। लेकिन, कालीघाट मंदिर में देवी की प्रतिमा में मां काली का मस्तक और चार हाथ नजर आते हैं। यह प्रतिमा एक चौकोर काले पत्थर पर उकेरी है। यहां लाल वस्त्र से ढकी मां काली की प्रतिमा के हाथ स्वर्ण आभूषणों और गला लाल पुष्प की माला से सुसज्जित है। मां को प्रसन्न करने के लिए यहां प्रतिदिन बकरे की बलि चढ़ती है। श्रद्धालुओं को प्रसाद के साथ सिंदूर का चोला दिया जाता है।

कोलकाता में ही हुगली नदी के किनारे स्थित है दक्षिणेश्वर काली मंदिर, जहां माता के परमभक्त और साधक स्वामी रामकृष्ण परमहंस पुजारी हुआ करते थे। यह मंदिर 1847 में जान बाजार की महारानी रासमणि ने बनवाया, जिन्हें सपने में मां काली ने मंदिर बनवाने का निर्देश दिया था। 1855 में तैयार हुआ यह मंदिर 25 एकड़ में विस्तारित है, जिसके भीतरी भाग में हजार पंखुडिय़ों वाला चांदी का कमल (फूल) स्थित है। 46 फुट चौड़े तथा 12 गुंबद वाले इस मंदिर की ऊंचाई 100 फुट है, जो अनूठी बांग्ला शैली की वैविध्यता को दर्शाता है। मंदिर के विशाल व हरेभरे परिसर में भगवान शिव के 12 मंदिर स्थापित हैं तथा सामने कल-कल करती हुगली की नैसर्गिक सुषमा भुलाए नहीं भूलती। यहां से बेलूर मठ के लिए नाव से जाना पड़ता है, जहां स्वामी रामकृष्ण परमहंस और उनकी लीलासंगिनी मां शारदा का अद्भुत स्थल है, जो स्वामी विवेकानंद से गहरे से जुड़ा है। रामकृष्ण मिशन इसका संचालन व देखभाल करता है, जिसकी स्थापना स्वामी विवेकानंद ने 1899 में की थी। यहां 1938 में बना मंदिर हिंदू, मुस्लिम व ईसाई शैलियों का मिश्रण है।

मां काली की आस्था से सराबोर कोलकाता अपने अस्तित्व से ही तंत्रमंत्र, ध्यान, ज्ञान, अध्यात्म, दर्शन, कला, साहित्य व संस्कृति का केंद्र रहा है। साहित्यिक, क्रांतिकारी व कलात्मक धरोहरों से सजे अत्यधिक सृजनात्मक ऊर्जा वाले इस शहर के दर्शनीय स्थलों का कोई सानी नहीं। यहां की इमारतों में गोथिक, बरोक, रोमन व इंडो-इस्लामिक स्थापत्य की शैलियों का भान सहज ही हो जाता है। यहां 1894 में बना एशिया का प्राचीनतम संग्रहालय हो, या 1906 से 1921 के बीच निर्मित विक्टोरिया मेमोरियल, सभी यहां की समृद्धता को दर्शाते हैं। विक्टोरिया मेमोरियल में महारानी विक्टोरिया के पियानो, स्टडी डेस्क सहित 3000 से ज्यादा वस्तुएं संग्रहित हैं, इसके अलावा इमारत के मुगलिया शैली के गुंबद और उनके शीशों की बेहतरीन स्टोन्ड ग्लास पेंटिंग, भित्तिचित्र, ग्रांड-ऑल्टर आज भी आगंतुकों को लुभाती हैं। इसके अलावा यहां देश के सबसे बड़े पार्कों में शुमार मैदान व फोर्ट विलियम, अनूठी शिल्पकला का द्योतक सेंट पॉल कैथेड्रल, ईडन गार्डन्स के छोटे से तालाब में बना बर्मा का पगोडा, मार्बल पैलेस, पारसनाथ जैन मंदिर, मदर टेरेसा होम्स, बॉटनिकल गार्डन्स, जंतर-मंतर, फाइन आट्र्स अकादमी, टॉलीवुड आदि अनगिनत दर्शनीय स्थल हैं। पर्वों में जगद्धात्री पूजा, पोइला बैसाख, सरस्वती पूजा, रथयात्रा, पौष पार्बो, होली, क्रिसमस, ईद तथा सांस्कृतिक उत्सवों में पुस्तक मेला, फिल्मोत्सव, डोवरलेन संगीत उत्सव, नेशनल थिएटर फेस्टिवल आदि प्रसिद्ध हैं। यहां परिधानों में तांत की साड़ी तथा व्यंजन में बंगाली मिठाइयां, रसगुल्ला व खानपान में मछली के दर्जनों वैराइटी मौजूद हैं। साथ ही, सुभाषचंद्र बोस, जगदीशचंद्र बोस, बंकिमचंद्र चट्टोपाध्याय, माइकल मधुसूदन दत्त, रविंद्रनाथ टैगोर, काजी नजरुल इस्लाम, शरतचंद्र चट्टोपाध्याय, जीबनानंद दास, बिभूतिभूषण बंदोपाध्याय, आशापूर्णा देवी, महाश्वेतादेवी, अमत्र्य सेन जैसी बेशुमार विश्व विख्यात हस्तियों के नाम व कारनामें कम नहीं होंगे, भले ही उन्हें लिखते-लिखते शब्द कम पड़ जाएं।

-सर्वेश...