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लोग-गीत: विरह से उपजा गान



अधिकांश लोकगीतों की रचना आस्था के दौर में हुई है इसलिए आस्तिक आचार-विचार इनमें अवश्य दिखते हैं।

अमरेंद्र नाथ त्रिपाठी
लोकगीतों में ‘बिरहा’ अत्यंत लोकप्रिय रहा है। यह अहीर समुदाय का जातीय लोकगीत है। अब तो समय काफी बदल गया है, लेकिन पहले इस जाति के व्यक्ति की श्रेष्ठता का प्रतिमान यह भी होता था कि उसे बिरहा गाना आता है या नहीं। ये लोग अपने पशुओं को चराते समय, आपस की बैठकी में या किसी खास मौके पर बिरहा की तान छेड़ देते थे। पर्व, उत्सव, जन्म, विवाह जैसे अवसरों पर भी बिरहा गाया जाता है। बिरहा अपनी रचना में एकदम सहज होता है। इसी सहजता को ध्यान में रख कर शुरुआती भाषा सर्वेक्षण करने वाले सर ग्रियर्सन ने कहा कि ‘वास्तव में बिरहा एक जंगली फूल के समान है।’  बिरहा के बारे में यह भी कहा जाता है कि इसका मूल भाव विरह का होता है; बिरहा में विरह को ही गाया जाता है। भगवान कृष्ण से जोड़ते हुए बिरहा के बारे में बिरहा गायक बताते हैं कि जब कृष्ण बांसुरी बजाते थे तो उनकी बांसुरी से जो राग निकलता वही विरह राग है जो आगे बिरहा के नाम से जाना जाने लगा। जबकि विरह भाव को ज्यादा महत्त्व देते हुए दूसरी मान्यता यह है कि कृष्ण जब गोपियों व ग्रामीणों को छोड़ मथुरा चले गए तो उनके विरह में ग्रामीणों और गोपियों ने जो गाया वही बिरहा का आरंभ था।
शिल्प की बात करें तो बिरहा दो तरह का बताया गया है। एक छोटा और दूसरा बड़ा। छोटे को चरकड़िया (चार कड़ी या चरण वाला) कहते हैं। इसमें चार ही पंक्तियों में कुछ संदेश कह डालने की कोशिश होती है। जबकि बड़ा, किसी बड़ी कहानी को लेकर होता है। लोकगाथा का रूप लिये हुए। कहानी रामायण व महाभारत के समय से लेकर आधुनिक काल तक की हो सकती है। चरकड़िया में एक ही लय चलती है जबकि बड़ा में लय बदल भी सकती है। यह गाथा के रूप में थोड़ा लंबा और एक-सी चाल लिये हुए भी हो सकता है।  बिरहा क्या है, इसे बताने की कोशिश भी एक भोजपुरी बिरहे में हुई है। एक बिरहा है जो कहता है कि बिरहा दिल से निकली हुई उमग है:

नाहीं बिरहा कर खेती भइया नाहीं बिरहा को डाढ़/बिरहा बसेले हिरिदिया ये राम जब उमगेले तब गाव!/

एक दूसरे अवधी बिरहा में बिरहा की उत्पत्ति का वर्णन इस तरह है:
हरे महराजा ना बिरहा कइ एतिआ-खेतिआ नाहीं करी रोजगार।/हरे बिरहा उपजइ अंग से जेकरे कंठे सूरसती बसि जाय।

भाव यह है कि बिरहा न खेती से पैदा होता है और न ही व्यापार से। जिसके कंठ में सरस्वती देवी का निवास हो, उसी के गले से यह निकलता है। यानी दैवी कृपा से।
अधिकांश लोकगीतों की रचना आस्था के दौर में हुई है इसलिए आस्तिक आचार-विचार इनमें अवश्य दिखते हैं। कई दूसरे लोकगीतों की तरह बिरहा की शुरुआत भी वंदना या सूरसती की टेर से होती है। बीच में कई धुनों से बिरहा गायक इसे और प्रभावी व दिलचस्प बना देता है। चर्चित बिरहा गायक रामकैलाश यादव बिरहा गाते हुए अनेक धुनों को शामिल करते हैं। अंत में कभी-कभी सारांश को बताते हुए, अपने गुरु और उनकी परंपरा में खुद का जिक्र करते हुए, बिरहा गायक बिरहा को विराम देता है। यह जिक्र कभी-कभी पहले भी हो जाता है। इस बिरहा की कुछ पंक्तियों को देखें:
लगाइ द्या परवा नैया रे मइया, लगाइ द्या परवा ना…/मिसरा माधवराम गुरुकइ चमकइ जस-सितरवा, रे मइया लगाइ द्या…/घनस्याम गावैं तोहरे सहरवा, रे मइया लगाइ द्या परवा ना…
वह व्यक्ति जो बिरहा गा रहा होता है वह बीच-बीच में एक अजीब-सी चीख वाली आवाज भी निकालता है, जो लय के आसपास सायास व्यवधान की तरह होती है, ‘टेरी’ कही जाती है। इसे परिवेश में एकरसता या ढीलेपन के विरुद्ध एक कशिश की तरह भी देखा जा सकता है। गायक के साथ वादकों का भी एक समूह होता है जिसमें मुख्य रूप से ढोलक, हारमोनियम, करताल, झांझ और मजीरा बजाने वाले होते हैं। कभी-कभी ढोलक बजाने वाला दो उगलियों पर लकड़ी की खपच्ची भी लगा लेता है जिससे ढोलक पर चोट और भी असरदार हो। आवाज की लम्फ और अधिक हो।
प्रेम खासकर वियोग का भाव बिरहा का केंद्रीय भाव है। अगर संयोग शृंगार की बातें आती हैं तो ज्यादातर वियोग के दिनों में संयोग के दिनों की स्मृतिजन्य कुहुक लिये हुए। बिरहा गायकी में कृष्ण के वियोग में गोपियों की दशा को प्रमुखता से रखा गया है। अन्य सामान्यजन भी इस विरह में शामिल होते हैं। कृष्ण और गोपियों को इस रूप में रखा जाता है कि उनकी पीड़ा सामान्यजन की पीड़ा से जुड़ सके। रामायण-महाभारत की कथाओं में भी जहां विरह है उन्हें लेकर बिरहा रचे गए हैं। चक्रव्यूह तोड़ने में वीरगति को प्राप्त हुए अभिमन्यु के लिए उत्तरा का विलाप भी बिरहा में है:
उत्तरा करति हयं रुदन/हमका छोड़ि के सजन/सैयां केकरी डगरिया/धराइ के गया!
चकाबीहु कठिन जाल/पती भये मोर हवाल/अपने दिल कै सारी हाल/न बताइ के गया!
बिरहा की भाषा बड़ी चलती हुई होती है। वही जैसी लोक की सामान्य बातचीत में व्यवहार की जाती है।
बियोग की कुहुक अपने दूसरे रूपों में भी सामने आती है:
पियरी भयी हूं सैंयां, पिया पिया रटिके
बावरी भयी हूं बरसनवा मा बसिके।
अनायास ही बहुतेरे सामाजिक सच बिरहा में आ जाते हैं। कहना अनुचित न होगा कि यदि बिरहा गीतों का विस्तार से विश्लेषण हो तो बहुत रुचिकर बातें जानने को मिलें। इस ‘फूल’ में, जिसे ग्रियर्सन ने भले ‘जंगली’ कहा है, साहित्यिक महक कम नहीं है। इस चरकड़िया को देखें:
आरे गउवा के नैहर बांस बरैली भइंसिउ घाघरा पार/अरे गोरिया के नैहर जमुना के पारवा जहं मोलउ नारि बिकाइ।
परंपरागत विषयों के साथ नए-नए विषयों को भी बिरहा अपने गायन के केंद्र में रखता आया है इसलिए बिरहा की परंपरा भले मंद पड़ी हो लेकिन समाप्त नहीं हुई है। हाल-फिलहाल की कोई राजनीतिक घटना भी बिरहा का विषय हो सकती है। इसे बिरहा के शिल्प की सकारात्मकता और शक्ति के रूप में देखना होगा। दहेज प्रथा, अवसरवाद, दुर्घटना, आपदा जैसे नए से नए विषयों को गाने वाले बिरहा गायकों की कमी नहीं है। नई तकनीक ने बिरहा को नए रूप में पहुंचाना शुरू कर दिया है। पहले जहां गाया जा रहा हो वहां जाकर सुनना पड़ता था। लेकिन कैसेट और सीडी का चलन शुरू हुआ तो कहीं गए बिना भी बिरहा का लुत्फ लेना आसान हो गया। इंटरनेट ने भी एक अच्छी भूमिका निभाई है। आॅडियो-वीडियो, जिस रूप में भी हम चाहें बिरहा को (या दूसरे भी लोकगीतों को) सुन-देख सकते हैं। यूट्यूब पर हम जाएं तो देख सकते हैं कि बिरहा की कितनी अधिक प्रस्तुतियां हैं और उन्हें सुनने वाले भी कितने अधिक हैं। लोगों के पास अब पहले जितनी फुरसत नहीं है। इसलिए नई तकनीक ने प्रसार के साथ-साथ अपनी सुविधा से सुनने की सहूलियत भी दी है। बिरहा को पहले पुरुष ही गाते रहे हैं लेकिन बदलते वक्त ने स्त्रियों को भी इस गायकी में आमंत्रित किया है। बिरहा गायिकाओं को सुनना भी एक दिलचस्प अनुभव है।
(साभार: जनसत्ता)


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