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जिंदगी की रेस में विनर बनने की चाहत में हम खुद तो दौड़ ही रहे हैं अपने साथ - साथ बच्चों को भी उनकी मर्जी के बिना हमने रेस में शामिल कर लिया है। इस अंधी दौड़ के कारण हम तो मानसिक दबाव से गुजर ही रहे हैं, बच्चों पर भी मानसिक दबाव डाल रहे हैं।

 छोटी-छोटी बात पर चीखना - चिल्लाना आज आम जिंदगी का डेली रूटीन हो गया है। बड़ो के बीच इस तरह की स्थिति तो हफ़्ते में चार दिन तो बन ही जाती है, लेकिन ऐसे में छोटे बच्चों का डर कर दुबक जाना अब बीते ज़माने की बात हो गयी है। बात अजीब मगर सच है कि अब बहुत छोटी उम्र के बच्चे भी बड़ो की तरह शॉर्ट-टेम्पर्ड हो रहे हैं।


अकेलापन 
आधुनिक पीढ़ी दो की जगह एक ही बच्चा चाहती है। हर किसी की अपनी वजह है, ऐसे में बच्चा बिलकुल अकेला हो जाता है। स्कूल, कोचिंग में हम उम्र दोस्तों के साथ होते हुए भी उसे इतना वक़्त नहीं मिलता कि वह बात चीत कर सके। कुछ  घंटे अगर किसी तरह व्यस्त दिनचर्या से निकल भी आये तो बच्चे के पास तकनीकी ऐसा लुभावना संसार होता है कि वह बच्चों के साथ खेलने की बजाय लैपटॉप,  टैबुलेट, मोबाइल, कंप्यूटर, टी . वी . से चिपकना पसंद करता है। धीरे -धीरे वह अपने चारो तरफ अकेलेपन का एक दायरा बुन लेता है, जिसके अन्दर जब कोई बड़ा घुसने की कोशिश करता है तो बच्चे का गुस्सा फूट पड़ता है।

सेल्फ डिपेंडेंसी 

पहले हम बच्चे को आत्म निर्भर बनाने के लिए उसे अपनी चीजे खुद पसंद करने की इजाजत देते हैं, फिर यह उसकी आदत बन जाती है। ऐसे में बहुत ही छोटी उम्र के बच्चे भी बड़ो को उनके निर्णय लेने नहीं देते। यदि हम उन्हें समझाने की कोशिश करते है तो वह चिल्लाकर विरोध जताते हैं।

बड़ो से मिली सीख 

बच्चे बड़ो से  अच्छी सीख तो लेते ही हैं साथ ही उनकी बुरी आदते भी उनमें स्वत: ही आ जाती हैं। बच्चों के लिये अच्छे और बुरे के बीच का फर्क समझना मुश्किल होता है। वैसे भी आसपास मौजूद बड़ो में ही बच्चे अपना रोले मॉडल तलाशते हैं और ऐसे में उनके बड़े यदि बात - बात पर गुसा करते हैं तो बड़े बच्चे भी उन्हें कॉपी करने लगते है।

सिमटता दायरा 

फ्लैट में रहने वाले लोगों  के बच्चे उनकी मर्जी की बिना ही आपसी तनाव के दर्शक बन जाते हैं। कई बार बड़ो के बीच होने वाली तीखी बात चीत को वह अपने मन में बिठा लेते हैं। समय - समय पर बच्चे गुस्से के रूप इसे  में जताते हैं। बात - बात पर "मुझे अभी दूध नहीं पीना, मुझे अकेले छोड़ दो ..." जैसी बातें उनके मन में दबे गुस्से का प्रतिरूप होतीं हैं।

बढ़ता दबाब

बच्चे को बेस्ट बनाने के चक्कर में कोई अभिभावक यह नहीं समझना चाहता कि  हर बच्चे कि एक निश्चित क्षमता होती है उससे से अधिक का दबाव डालने पर वह मानसिक तनाव से गुजरने लगता है। यह डिप्रेशन गुस्से और झुंझलाहट के रूप में बहार निकलता है।

अत्यधिक छोटे बच्चों में गुस्से की यह आदतें अच्छी नहीं हैं और जाने अनजाने बड़े ही इसके लिए जिम्मेदार नजर आते हैं। अच्छा हो कि बचपन में ही उनकी इस आदत की अनदेखी ना की जाए नहीं तो किशोरवय होने तक इस गुस्से को रोकना मुश्किल हो जाएगा। 

- सोनी सिंह -