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श्री गंगालहरी



श्री गंगालहरी 

जडानंधानं पङ्गूनं  प्रकृति बधिरानुक्तिविकलानं
ग्रहग्रस्तानस्ता खिलदुरितनिस्तारसरणीनं।
निलिंपैपैर्नीर्मुक्तानपि च निर्यांतर्नीपततो
नरानम्ब त्रातुं त्वमिह परमं भेषजमसि ॥ १५॥

स्वभावस्वच्छानां सहजशिशिराणामयमपा-
मपारस्ते मातर्जयति महिमा कोऽपि जगति। 
मुदायं गायन्ति घुतलमनवघघुतिभृतः
समासाधाधापि स्फुटपुलकसा सांद्रा: सगरजाः ॥ १६॥


आज हम श्री गंगालहरी के दो और श्लोकों का प्रकाशन कर रहें है। 

- संपादक की कलम से 




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