स्वभावो नोपदेशेन शक्यते कर्तुमन्यथा !
सुतप्तमपि पानीयं पुनर्गच्छति शीतताम् !!
भावार्थ : किसी व्यक्ति को आप चाहे कितनी ही सलाह दे दो, किंतु उसका मूल स्वभाव नहीं बदलता। ठीक उसी तरह जैसे ठंडे पानी को उबालने पर तो वह गर्म हो जाता है, लेकिन बाद में वह पुनः ठंडा हो जाता है।
इसी प्रकार अपमान करना किसी के स्वभाव में हो सकता है, पर सम्मान करना हमारे संस्कार में होना चाहिए। हम जिस चेहरे के साथ जन्म लेते हैं, वह हमारे वश में नहीं होता। किंतु हम जिस चरित्र, व्यक्तित्व एवं किरदार के साथ इस संसार से विदा लेते हैं, उसके लिए हम खुद जिम्मेदार होते हैं।
इसीलिए, खुद को मांजिए, संवारिए और निर्मल कीजिए, ताकि भूलवश भी, रंच मात्र भी किसी की आत्मा को आपसे कष्ट न पहुंचने पाए।
ऊं तत्सत...
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