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बेबाक हस्तक्षेप- 'धोबी का कुत्ता न घर का न घाट का'

बेबाक हस्तक्षेप 


'धोबी का कुत्ता न घर का न घाट का'

कल एक सुप्रसिद्ध टीवी चैनल पर देख रहा था कि किस तरह खुद को दलित कहे जाने वाले लोग लोकतंत्र का महिमा मण्डन खुली सड़को पर कर रहे थे।  देख कर गर्व महसूस हुआ की किस तरह जाति के मुद्दों पर लोग सुप्रीम कोर्ट के खिलाफ सड़को पर उतर आते है।  

पर फिर उस ऐंकर ने वोटो का गणित समझाया की किस तरह राजनैतिक दल इन लोगो को अपना वोट बैंक बनाए हुए है। ये भी देख कर गर्व महसूस हुआ की संगठित होकर भेड़ चाल में वोट देने वाला नागरिक ही असली भारतीय है और स्वतंत्र रूप से अपने विचार प्रकट करने वाला और वोट देने वाला व्यक्ति आर्य है। 

आखिर आर्य का शाब्दिक अर्थ श्रेष्ठ ही है तो मुझे स्वर्ण होने और श्रेष्ठ होने पर गर्व है जैसे दलितों को दलित होने पर महसूस होता है। 

सुन रखा है कि किसी स्वर्ण ने ही किसी को पढ़ाया और उसे इस काबिल बनाया की वो दलित और स्वर्ण के रूप में देश को विभाजन की त्रासदी भेट कर जाए अपनी विरासत स्वरूप। 

ये भी सुन रखा है कि किस तरह किसी स्वर्ण आर्य ने ही दलितों को उनका हक़ दिलवाने के लिए संविधान के उस धारा को अमली जामा पहनाया। 

और आज जब हम इस उभरते भारत में आर्थिक रूप से कमजोर स्वर्ण अपना हक़ मांग रहे है तो उनका तिरस्कार हर किस्म के नेता और राजनैतिक दल किस-किस रूप में कर रहे है ये भी देख रहा हुँ। 

अच्छा है आग में घी डालते जाओ बस आंधी आने भर की देरी है; फिर उसी आग में हम सब जलेंगे तो लोकतंत्र का मजा पूरी दुनिया देखेगी, खासकर हमारा पड़ोसी मुल्क जिसे पुनः भारत विभाजन की विभीषिका लिखने का शौक है।  

- संपादक की कलम से 

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