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ढीठ चांदनी / धर्मवीर भारती
आज-कल तमाम रात,
चांदनी जगाती है।
मुँह पर दे-दे छींटे,
अधखुले झरोखे से,
अन्दर आ जाती है,
दबे पाँव धोखे से।
माथा छू,
निंदिया उचटाती है,
बाहर ले जाती है,
घंटो बतियाती है।
ठंडी-ठंडी छत पर,
लिपट-लिपट जाती है,
विह्वल मदमाती है,
बावरिया बिना बात?
आजकल तमाम रात
चाँदनी जगाती है।।
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