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काशी सत्संग: विष में अमृत शिव की भाषा


सविषोsप्यमृतायते भवान्
शवमुण्डाभरणोsपि पावनः।
भव एव भवान्तकः सताम्
समदृष्टिर्विषमेक्षणोsपि सन्।।

हे महादेव! आप विष धारण करते हुए भी भक्तों के लिये अमृत रूप हैं।आप शवों के मुण्डों की माला धारण करने पर भी परम पवित्र हैं।
आप का नाम भव है किन्तु भक्तों के भव का नाश करते हैं। आपकी दृष्टि अर्थात् नेत्र विषम अर्थात्  तीन हैं  क्यों कि तीन विषम संख्या मानी जाती है तो भी आप समदृष्टि हैं अर्थात् सबका समान भाव से दर्शन करते हैं।

गरुड़जी कहते हैं, "जिस प्रकार देवाधिदेव महादेव शिव अनेकानेक विषमताओं में स्वभाव से अनुकूल रहते हैं, उसी प्रकार हे मनुष्य- तुम्हें भी अच्छे व्यवहार के लिए भी सदैव प्रयत्नशील रहना चाहिए।" संतों की वाणी है कि जिस प्रकार अच्छा व्यापार आपको सुखी रखेगा, उसी प्रकार अच्छा व्यवहार आपको आंतरिक खुशी प्रदान करेगा। हमारे जीवन में कई क्लेशों का केवल एक ही कारण है, वह है स्वभाव। कुछ न हो तो अभाव सताता है। कुछ हो तो भाव सताता है और सब कुछ हो, तो फिर स्वभाव सताता है।

बुरे स्वभाव से हम आसान चीजों को भी क्लिष्ट बना लेते हैं। गलत व्यवहार, क्रोध, हृदय में अशांति और भय पैदा करता है। वाह्य खुशी तो व्यापार दे देगा, पर भीतर की प्रसन्नता, आनंद और निर्भीकता तो मधुर व्यवहार ही देगा। व्यापार के लिए ही नहीं, व्यवहार के लिए भी चिंतन किया करो। वहीं आपके असली मोक्ष का कारक होगा।
ऊं तत्सत.. 

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