काशी सत्संग: "मैं न होता, तो क्या होता" - Kashi Patrika

काशी सत्संग: "मैं न होता, तो क्या होता"

एक बार हनुमानजी ने प्रभु श्रीराम से कहा कि अशोक वाटिका में जिस समय रावण क्रोध में भरकर तलवार लेकर माता सीता को मारने के लिए दौड़ा, तब मुझे लगा कि इसकी तलवार छीनकर इसका सिर काट लेना चाहिए, किंतु अगले ही क्षण मैंने देखा कि मंदोदरी ने रावण का हाथ पकड़ लिया। यह देखकर मैं गदगद हो गया! यदि मैं कूद पड़ता, तो मुझे भ्रम हो जाता कि यदि मैं न होता, तो क्या होता? 
बहुधा हमको ऐसा ही भ्रम हो जाता है, मुझे भी लगता कि यदि मैं न होता, तो सीताजी को कौन बचाता? परंतु आज आपने उन्हें बचाया ही नहीं, बल्कि बचाने का काम रावण की पत्नी को ही सौंप दिया। तब मैं समझ गया कि आप जिससे जो कार्य लेना चाहते हैं, वह उसी से लेते हैं, किसी का कोई महत्व नहीं है !

आगे चलकर जब त्रिजटा ने कहा कि लंका में बंदर आया हुआ है और वह लंका जलाएगा, तो मैं बड़ी चिंता मे पड़ गया कि प्रभु ने तो लंका जलाने के लिए कहा ही नहीँ है और त्रिजटा कह रही है, तो मैं क्या करुं?
परंतु जब रावण के सैनिक तलवार लेकर मुझे मारने के लिए दौड़े, तो मैंने अपने को बचाने की तनिक भी चेष्टा नहीं की और जब विभीषण ने आकर कहा कि दूत को मारना अनीति है, तो मैं समझ गया कि मुझे बचाने के लिए प्रभु ने यह उपाय कर दिया!
आश्चर्य की पराकाष्ठा तो तब हुई, जब रावण ने कहा कि बंदर को मारा नहीं जाएगा पर पूंछ मे कपड़ा लपेट कर घी डालकर आग लगाई जाए, तो मैं गदगद् हो गया कि उस लंका वाली संत त्रिजटा की ही बात सच थी, अन्यथा लंका को जलाने के लिए मैं कहां से घी, तेल, कपड़ा लाता और कहां आग ढूंढता, पर वह प्रबंध भी आपने रावण से करा दिया। जब आप रावण से भी अपना काम करा लेते हैं, तो मुझसे करा लेने में आश्चर्य की क्या बात है!

इसलिए हमेशा याद रखें कि संसार में जो कुछ भी हो रहा है वह सब ईश्वरीय विधान है, हम और आप तो केवल निमित्त मात्र हैं। इसीलिए कभी भी ये भ्रम न पालें कि... "मैं न होता, तो क्या होता"! 
ऊं तत्सत...

No comments:

Post a Comment