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बेबाक हस्तक्षेप

मोहम्मद अली जिन्ना की तस्वीर को लेकर देश दो मत में विभक्त हो गया है और दोनों के पैरोकार अपनी-अपनी बात सही साबित करने को लेकर सड़कों से लेकर सोशल मीडिया तक छाए हैं। इससे एक बात तो जाहिर है कि देश में अंग्रेजों के जमाने की परंपरा को आज भी बदस्तूर निभाया जा रहा है, यानी हममें आपसी फूट अब भी बरकरार है। इसका दूसरा पहलू यह भी है कि नफरत को मोहबत से ज्यादा तबज्जो दिया जाता है। सहज और सरल तर्क दें, तो आजाद भारत में जिन्ना के तस्वीर की कोई जगह नहीं है और उनकी तस्वीर लगाए रखने वाला अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय गुनहगार मालूम पड़ता है, लेकिन क्या जिन्ना की तस्वीर हटा देने मात्र से पैदा विवाद खत्म हो जाएगा और आगे इस तरह के मुद्दे सिर नहीँ उठाएंगे। ऐसा है, तो क्यों न इस तरह की हर तस्वीर, मूर्ती और अन्य प्रतीकों को एक साथ सब मिलकर हटा दें और भारत की तरक्की पर ध्यान केंद्रित करें। जिन्ना के मुद्दे को लेकर बड़ी तादाद में जुटी भीड़ शासन-प्रशासन से उनके वादों और जमीनी हकीकत का ब्यौरा क्यों नहीँ मांगती? ये युवा शक्ति विकास के मुद्दों पर साथ मिल जुलकर काम करने की जगह नफरत में क्यों झुलस रही है?

बात को समझने की कोशिश करें, तो लगता है कि इन मुद्दों को समय-समय पर हवा देकर अन्य महत्वपूर्ण मसलों को दबाने का प्रयास चल रहा है। राजनीतिकों की जमात ऐसे मुद्दों की आर में अपनी नाकामी छुपाती आई है और हालात देखकर लगता है आगे भी यह खेल चलता रहेगा। तभी तो, लालकिला, संस्कृत, गौरक्ष जैसे हर मुद्दा राष्ट्रवाद से जोड़कर प्रस्तुत किया जाता है। दिलचस्प यह है कि हमें सौ वर्षों तक गुलाम बनाकर रखने वाले अंग्रेजों की भाषा को न सिर्फ देश में प्रोत्साहन मिल रहा है, उसे हिंदी में लपेटकर "हिंग्लिश" बनाने में कथित देशभक्त गर्व महसूस कर रहा है।

कुल मिलाकर, अत्यधिक आक्रामक देशभक्ति सन्देह तो उत्पन्न करती ही है, यह ठीक भी नहीँ है। नफरत से किसी के हिस्से कुछ नहीँ आएगा। देश सभी का है और मिल जुलकर पक्ष-विपक्ष ऐसे तमाम मुद्दों को एक साथ सुलझा ले, ताकि आगे सब सिर्फ देश की तरक्की के लिए काम करें, जहां तेरा-मेरा देश न हो। सारे जहां से अच्छे देश को अच्छा रहने दिया जाए, इसी में राष्ट्रहित और जनहित दोनों समाहित है।

-संपादकीय

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