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नई सदी का गाँव- शिवानन्द सिंह 'सहयोगी'


नई सदी का गाँव

पहले जैसा नहीं रहा अब 
नई सदी का गाँव

भागड़ में जलकुंभी पसरी 
कूड़ाघर हैं घाट
ढहे पुराने माटी के घर
बसे ईंट के ठाट 
अपना आंगन ढूँढ़ रहा है 
तुलसी दल का पाँव

कई बुढ़ाई की उमरों की 
मौत ले गई साँस 
अंतिम क्रिया निदेशालय तक 
मिट्टी ढोये बाँस
अस्पताल की किसी दवा को 
होता नहीं निनाँव

खेतों को जो दूध पिलाते 
बने कबाड़ी कूप 
अब फसलों को नहीं सताते 
टिड्डी दल या धूप 
भैंस नाँद को छोड़ चुकी हैं
छुट्टा भगी गराँव

लोकगीत के टूट गये हैं 
परंपरा से तार 
पहले थी जो पूरब बहती 
पश्चिम है वह धार
अंगूरी बोतल के सँग-सँग 
बैठ रही है छाँव

■ शिवानन्द सिंह 'सहयोगी'
मेरठ
(पाठक द्वारा भेजी गई रचना)

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