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बेबाक हस्तक्षेप

देश में बढ़ते अपराधों को लेकर चिंता सभी राजनीतिक दल व्यक्त करते हैं, लेकिन अपने गिरेबां में झांके तो हर राजनीतिक दल में ही ऐसे सांसद-विधायक निकल आएंगे, जिनके खिलाफ मामले लंबित हैं। दागी ‛माननीयों’ पर लंबित आपराधिक मुकदमे और उनके निपटारे के बारे में मांगी गई जानकारी न देने पर सुप्रीम कोर्ट ने गुरुवार को केंद्र सरकार को कड़ी फटकार लगाई। शीर्ष अदालत ने यह भी कहा कि सरकार की तैयारी ठीक नहीं है, लेकिन क्या सचमुच सरकार ‛लचर’ है!
सवाल उठता है, क्योंकि नोटबंदी से लेकर जीएसटी तक के फैसले रातोरात ले लिए जाते हैं और व्यवस्था भी फटाफट काम करती है, ‛असम में नागरिकों कौन’ की पहचान से लेकर ऐसे कई मामले हैं, जहां सरकार और सिस्टम दोनों ही सुस्त नहीं दिखते, फिर इस मामले में कोताही क्यों? समझने की कोशिश करें, तो सुप्रीम कोर्ट एक जनहित याचिका पर सुनवाई कर रही है, जिसमें मांग की गई है कि दागी नेताओं के लंबित मामलों की सुनवाई के लिए विशेष अदालत बने और दोषी नेताओं को लाइफटाइम बैन किया जाए। अब सरकार द्वारा ही सुप्रीम कोर्ट में पेश आंकड़ों पर नजर डालें, तो देश भर में 1765 सांसदों और विधायकों के खिलाफ 3045 आपराधिक मुकदमे लंबित हैं। माननीयों के अपराधों में उत्तर प्रदेश अव्वल है, जबकि तमिलनाडु दूसरे नंबर पर और बिहार तीसरे नंबर पर है। केन्द्र सरकार की ओर से कोर्ट में कुल 28 राज्यों का ब्योरा दिया गया है, जिसमें उत्तर प्रदेश में 248 सांसदों-विधायकों के खिलाफ कुल 539 मुकदमें लंबित हैं। रिपोर्ट के मुताबिक देश के 33 फीसदी यानी 1580 सांसद-विधायक ऐसे हैं, जिनके खिलाफ आपराधिक मामले दर्ज हैं। इनमें से 48 महिलाओं के खिलाफ अपराध के  आरोपी हैं, जिनमें 45 विधायक और तीन सांसद हैं। इसमें महिला उत्पीड़न, अगवा करने, शादी के लिए दबाव डालने, बलात्कार, घरेलू हिंसा और मानव तस्करी जैसे अपराध शामिल हैं।
यानी ‛माननीयों’ के अपराध मामलों का लेखाजोखा देखते हुए मुश्किल लगता है कि मामले में काम रफ्तार से होगा!
■ संपादकीय

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