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बेबाक हस्तक्षेप

देश चुनावी मूड में है, तो पश्चाताप करने और पाप धुलने का इससे अच्छा अवसर देश के सियासतदारों को फिर मिलना मुश्किल है। सो, बीजेपी के नेतागण लगता है साथ मिलकर अटलजी की अस्थियां बहाने के साथ ही उनके विचारों, राजनीतिक और ‛राजधर्म’ को भी प्रवाहित कर देने का मन बना चुके हैं।  तो, कांग्रेस के युवराज भी पीछे क्यों रहते। उन्होंने भी मौका देखकर अपनी पार्टी के पाप धुल लेने की ठान ली और 34 बरस पुराने दंगे से कांग्रेस को अलग करते हुए कहा, ‛84 का दंगा कांग्रेस की देन नहीं है।’
आखिर राहुल गांधी के जेहन में सिख दंगों की याद क्यों ताजा हो आई, जबकि ‛तब वे स्कूल में थे’। यकीनन राजनीति में कुछ भी अचानक नहीं होता, तो थोड़ा पीछे चलते हैं, जब 2014 लोकसभा चुनाव से काफी पहले ही नरेंद्र मोदी की छवि को गुजरात दंगे से अलग कर ‛वाइब्रेंट गुजरात’ से जोड़कर प्रस्तुत किया जाने लगा। 2014 आते-आते राम मन्दिर और हिंदुत्व आखिरी पृष्ठ पर चला गया और जनता को विकास का सपना थमाकर भाजपा ने बहुमत पा लिया। वर्तमान हालात पर नजर डालें तो, रोजगार से लेकर विकास तक जनता खुद को ठगा सा महसूस कर रही है और उसके लिए हालत 2014 से पहले जैसे थे आज भी नहीं बदले। तिस पर जीएसटी और नोटबंदी ने और बेहाल कर दिया है। परिणाम यह है कि नित नए सर्वे में भाजपा और नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता का ग्राफ गिर रहा है। कांग्रेस इस मौके को अपने पक्ष में भुनाने के लिए बेचैन है, जबकि भाजपा अभी तक हुए बदलावों को आधार बनाकर एक मौका यानी पांच वर्ष और मांग रही है।
हालांकि, जनता का मूड फिलहाल समझना मुश्किल हो रहा है, क्योंकि बेरोजगारी, महंगाई, नोटबंदी...के बोझ तले दबी जनता की आस शायद हर राजनीतिक दल से टूट चुकी है। सियासत भी इससे भलीभांति परिचित है, इसी लिए धर्म, कश्मीर, चीन, पाकिस्तान, गंगा सफाई...तक हर नब्ज टटोला जा रहा है। फिर, राहुल गांधी पीछे क्यों रहते! उन्होंने भी संघ को मुस्लिम ब्रदरहुड करार देने से लेकर मॉब लिचिंग की नई परिभाषा तक गढ़ डाली। राहुल गांधी को इतना कम लगा सो उन्होंने लगे हाथों सिख दंगों से भी किनारा कर लिया। क्योंकि मोदी को मात देने के लिए मोदी के ही राह पर चलना शायद उन्हें ठीक लग रहा है। ख़ैर, इसी बहाने भाजपा और कांग्रेस दोनों उसी तरह पाक-साफ हो गए, जिस तरह मिलजुलकर हत्या करने के बाद भीड़ पाक-साफ हो जाती है।
■ संपादकीय

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