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बेबाक हस्तक्षेप

एक ओर जहां बढ़ती महंगाई के बीच आज देश के आम लोगों की मुसीबतें कम होने का नाम नहीं ले रही हैं। वही प्राकृतिक आपदाओं और अपराध ने देश के लोगों का जीना दुश्वार कर रखा हैं। रुपया जहां आज अपने न्यूनतम स्तर पर है, तो पेट्रोल-डीजल के दाम आसमान छू रहे हैं। ये दोनों ही आम लोगों के जीवन को बड़े पैमाने पर प्रभावित करने की क्षमता रखते हैं। इसके बावजूद केंद्र और राज्य सरकारों का इन मामलों से दूरी बनाए रखना इस बात की टीस पैदा करता हैं कि देश में सरकारें केवल दिखावे के लिए हैं।

इनमें देश के विभिन्न राज्यों में हर साल आने वाली बाढ़ से मौत के आंकड़े जोड़ दिए जाए तो सरकारों की नाकामियां खुलकर जाहिर हो जाती हैं। 2016 में जहां विभिन्न राज्यों में बाढ़ से मरने वाले लोगों का सरकारी आंकड़ा 936 था, वहीं 2017 में यह बढ़कर 1200 हो गया। इस साल यह सरकारी आंकड़ा अब तक 1211 हो चुका हैं, जो पिछले तीन सालों में सबसे अधिक है।

देश में हर साल बाढ़ से सबसे ज्यादा प्रभावित राज्यों में मुख्य रूप से बिहार, पश्चिम बंगाल, उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, महाराष्ट्र और कर्नाटक हैं। सरकार के पास इन राज्यों में बाढ़ नियंत्रण और उससे बचाव के उपाय करने का कोई आंकड़ा नहीं हैं। हां, सरकार के पास ये आंकड़ा जरूर मौजूद हैं कि उसने बाढ़ की स्थिति में सेना का कहा-कहा प्रयोग किया और कितने लोगों को बचाया। इसमें गौर करने वाली सबसे महत्वपूर्ण बात ये हैं कि सरकार ने आजादी के बाद से ही बाढ़ नियंत्रण के लिए कोई ठोस नीति का निर्माण नहीं किया हैं।

यह हास्यास्पद ही हैं कि वो सरकार जो आम जनता से कर एकत्र करने के लिए सबसे उन्नत प्रावधान जीएसटी ला सकती हैं, उसके पास उसी कर से आम जान-माल की जिंदगियां बचाने के लिए नीति बनाने के साधन मौजूद नहीं हैं। हम गौर करे, तो पाएंगे कि सरकार ने वनों की कटाई पर पूर्ण विराम लगाने के लिए कोई पुख्ता नीति नहीं बनाई हैं, बाढ़ प्रभावित क्षेत्रों में न तो तटबंधों को मजबूत करने का कार्य ही किया हैं, भू-स्खलन वाले इलाकों में भ्रस्टाचार ने अपनी जड़े ऐसी जमाई कि वहां बड़े पैमाने पर अवैध निर्माण हो गए। इन सबके बीच इन मौतों को गाहे-बगाहे दैवी आपदा कहना सरकार की संवेदनहीनता को ही उजागर करता हैं।

अगर आगे भी इसी प्रकार सरकार आम जनता की सुरक्षा की मूलभूत आवश्यकताओं से दूरी बनाए रखती हैं, तो ये कहना अतिश्योक्ति नहीं होगा कि देश में सरकार केवल चुनावों के समय आम जनता के लिए कार्य करती हैं और अगले पांच साल केवल और केवल सत्ता सुख का भोग करती हैं।
■संपादकीय 

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