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साहित्यिक झरोखा: संस्कृत के महाकवि कालिदास


सुधर-मधुर विचित्र है जलयन्त्र मन्दिर और गृहो में
चन्द्रकान्ता मणि लटकती, झूलती वातायनों में
सरस चन्दन लेप कर तन ग्लानि हरने को निरत मन,
व्यस्त है सब, लो प्रिये ! अब हँस उठा है नील निस्वन,
तिमिर हर कर, अमृत निर्झर शान्त शशधर मुसकराया,
प्रिये ! आया ग्रीष्म खरतर !

अलंकार युक्त सुंदर सरल और मधुर भाषा में भारत की पौराणिक कथाओं और दर्शन को आधार बनाकर लेखनी चलाने वाले महान कवि और नाटककार  कालिदास का ऋतु वर्णन अद्वितीय हैं। और उनकी उपमाएं बेमिसाल। संगीत उनके साहित्य का प्रमुख अंग है और रस का सृजन करने में उनकी कोई उपमा नहीं। उन्होंने अपने श्रृंगार रस प्रधान साहित्य में भी साहित्यिक सौन्दर्य के साथ-साथ आदर्शवादी परंपरा और नैतिक मूल्यों का समुचित ध्यान रखा है। तभी तो संस्कृत भाषा के रचनाकारों में उनका नाम अमर है और उनका स्थान वाल्मीकि और व्यास की परम्परा में है।

कुछ मान्यताओं के अनुसार कालिदास विक्रमादित्य के दरबार के नवरत्नों में एक थे। महाकवि कालिदास कब हुए इसे लेकर विद्वानों के अनेक मत हैं। 150 वर्ष ईसा पूर्व से 450 ईस्वी तक कालिदास हुए होंगे ऐसा माना जाता है। नये अनुसंधान से ज्ञात हुआ है कि इनका काल गुप्त काल रहा होगा। किंवदन्ती है कि प्रारंभ में कालिदास मंदबुध्दी तथा अशिक्षित थे। कुछ पंडितों ने धोखे से उनका विवाह विदुषी राजकुमारी विद्योत्तमा के साथ छल से करा दिया। विद्योत्तमा वास्तविकता का ज्ञान होने पर अत्यन्त दुखी तथा क्षुब्ध हुई। उसकी धिक्कार सुन कर कालिदास ने विद्याप्राप्ति का संकल्प किया तथा घर छोड़कर अध्ययन के लिए निकल पड़े और विद्वान बनकर ही लौटे।

वर्तमान समय में लगभग 40 ऐसी रचनाएँ हैं, जिन्हें कालिदास के नाम से जोड़ा जाता है। लेकिन इनमें से केवल सात ही निर्विवाद रूप से महाकवि कालिदास द्वारा रचित मानी जाती हैं। इन सात में से तीन नाटक, दो महाकाव्य और दो खण्डकाव्य हैं। उन्हें नाटक ‘अभिग्यांशाकंतलम’ से सबसे ज्यादा प्रसिद्धि मिली। इसका विश्व की अनेक भाषाओँ में अनुवाद हो चुका है। उनके दूसरे नाटक ‘विक्रमोर्वशीय’ तथा ‘मालविकाग्निमित्र’ भी उत्कृष्ट नाट्य साहित्य के उदाहरण हैं। उनके केवल दो महाकाव्य उपलब्ध हैं – ‘रघुवंश’ तथा ‘कुमारसंभव’। साहित्य की दृष्टि से कालिदास  का ‘मेघदूत’ अतुलनीय है।

कश्चित्‍कान्‍ताविरहगुरुणा स्‍वाधिकारात्‍प्रमत:
     शापेनास्‍तग्‍ड:मितमहिमा वर्षभोग्‍येण भर्तु:।
यक्षश्‍चक्रे जनकतनयास्‍नानपुण्‍योदकेषु
     स्निग्‍धच्‍छायातरुषु वसतिं रामगिर्याश्रमेषु।।

कोई यक्ष था। वह अपने काम में असावधान
हुआ तो यक्षपति ने उसे शाप दिया कि
वर्ष-भर पत्‍नी का भारी विरह सहो। इससे
उसकी महिमा ढल गई। उसने रामगिरि के
आश्रमों में बस्‍ती बनाई जहाँ घने छायादार
पेड़ थे और जहाँ सीता जी के स्‍नानों द्वारा
पवित्र हुए जल-कुंड भरे थे।
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