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तृषा गई एक बूंद से...

जीवन सत्य में है और मनुष्य असत्य में भटक रहा है। जीवन वर्तमान में है और तू भूत-भविष्य में अटका है। इसी लिए जीवन दुखमय बन गया है...

मेरे प्रिय आत्मन्! सत्य की खोज के संबंध में थोड़ी सी बात आपसे कहना चाहूंगा। सत्य की क्या परिभाषा है? आज तक कोई परिभाषा नहीं हो सकी है। भविष्य में भी नहीं हो सकेगी। सत्य को जाना तो जा सकता है, लेकिन कहा नहीं जा सकता। परिभाषाएं शब्दों में होती हैं और सत्य शब्दों में कभी भी नहीं होता। लाओत्से ने आज से कोई तीन हजार वर्ष पहले एक छोटी सी किताब लिखी। उस किताब का नाम है ‛ताओ तेह किंग’। उस किताब की पहली पंक्ति में उसने लिखा है: मैं सत्य कहने के लिए उत्सुक हुआ हूं, लेकिन सत्य नहीं कहा जा सकता है। और जो भी कहा जा सकता है, वह सत्य नहीं होगा। फिर भी मैं लिख रहा हूं, लेकिन जो भी मेरी इस किताब को पढ़े, वह पहले यह बात ध्यान में रख ले कि जो भी लिखा, पढ़ा, कहा जा सकता है, वह सत्य नहीं हो सकता।
बहुत अजीब सी बात से यह किताब शुरू होती है। और सत्य की दिशा में लिखी गई किताब हो, और पहली बात यह कहे कि जो भी लिखा जा सकता है वह सत्य नहीं होगा, जो भी कहा जा सकता है वह सत्य नहीं होगा, फिर लिखा क्यों जाए? फिर कहा क्यों जाए? जो हम भी कहेंगे वह अगर सत्य नहीं होना है, तो हम कहें क्यों?
लेकिन जिंदगी के रहस्यों में से एक बात यह है कि अगर मैं अपनी अंगुली उठाऊं और कहूं-वह रहा चांद! तो मेरी अंगुली चांद नहीं हो जाती है, लेकिन चांद की तरफ इशारा बन सकती है। मेरी अंगुली पकड़ ले और कहे कि मिल गया चांद, तो भूल हो जाएगी, जो अंगुली को छोड़ दें और चांद को देखें, तो अंगुली इशारा बनेगी, बाधा नहीं।
शब्द सत्य नहीं है, न हो सकता है,लेकिन शब्द इशारा बन सकता है।
आंख खुलनी चाहिए, जिसकी आंख खुल जाती है वह जान लेता है। और जानते ही जीवन दूसरा हो जाता है। सत्य को जानते ही जीवन सत्य हो जाता है। सत्य को बिना जाने जीवन असत्य ही रहता है, चाहे हम कितने ही उपाय करें। अगर वह प्रेम भी प्रकट करे तो असत्य होगा। अगर वह अहिंसक भी बन जाए, तो भीतर हिंसा होगी। अगर वह प्रेमी भी बन जाए तो पीछे वासना होगी, अगर वह ब्रह्मचर्य भी साधे तो चित्त में सेक्स ही चलता रहेगा। सत्य को जाने बिना सारा का सारा जीवन ही असत्य होता है, चाहे हम कुछ भी करें। अंधा आदमी कुछ भी करे, टकराएगा। आंख वाला आदमी नहीं टकराएगा। नहीं टकराना आंख वाले के लिए उतना ही स्वाभाविक है, जितना अंधे के लिए टकराना। सत्य की उपलब्धि जीवन का रूपांतरण है, वह जीवन को सत्य कर जाती है। और जीवन जब तक सत्य नहीं है, तब तक आनंद भी नहीं है। असत्य के साथ कोई आनंद नहीं है, अंधेपन के साथ कोई आनंद नहीं है। अंधापन ही दुख है, असत्य ही दुख है।
लेकिन क्या करें फिर सत्य की खोज में?
जीवन को बदलने की बात मैं नहीं करता। जीवन को देखने की दृष्टि बदलने की बात है। और वह दृष्टि जितनी ताजी, साफ, पक्षपातरहित, दृष्टिमुक्त दृष्टि, शास्त्र-शब्द से मुक्त, अतीत से मुक्त, अभी और यहां जो है उसे देखने की जितनी निर्मलता हम साधते चले जाएं, उतनी ही वह आंख खुलेगी। वह आंख खुलेगी और हम उसे जान लेंगे जो है। जो है, उसी का नाम सत्य है।
■ ओशो

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