एक दिन एक साधु स्वामीजी के पास आया। वह चिंतित प्रतीत हो रहा था। अभिवादन करने के उपरांत उसने अपनी व्यथा स्वामीजी को सुनाई, “स्वामीजी! मुझे शांति नहीं मिलती। मैंने सब कुछ त्याग दिया है। मोह माया के बंधनों से मुक्त हो गया हूं। फिर भी मन सदा भटकता रहता है। एक दिन मैं अपने एक गुरु के पास गया। मेरी व्यथा सुनकर उन्होंने मुझे एक मंत्र दिया और कहा कि उसके जाप से मुझे अनहदनाद सुनाई देगा और मेरा मन शांत हो जाएगा। मैंने उस मंत्र का जाप करने पर भी मुझे शांति नसीब नहीं हुई। मैं बहुत परेशान हूं स्वामीजी। आप कुछ समाधान बताइए।” कहते हुए उस साधु की आंखें नम हो गई।
स्वामीजी बड़े ध्यान से उसकी बातें सुन रहे थे। बात समाप्त होने पर उन्होंने पूछा, “मान्यवर! क्या आप वास्तव में शांति चाहते है?”
“जी स्वामीजी! इसी आस में मैं आपके पास आया हूं” साधू ने उत्तर दिया।
“तो ठीक है। मैं आपको शांति प्राप्त करने का सरल मार्ग बताता हूं। यह जान लो कि सेवा धर्म महान है। घर से निकलो। बाहर जाकर भूखों को भोजन दो। प्यासों को पानी पिलाओ। विद्यारहितों को विद्या दो। दीन-दुखियों, दुर्बलों और रोगियों की तन, मन एवं धन से सेवा करो। सेवा द्वारा मनुष्य का अंतःकरण शांत होता है। ऐसा करने से आपको सुख और शांति प्राप्त होगी।”
स्वामी विवेकानंद की बात साधु के मन में बैठ गई। वह एक नए संकल्प के साथ वहां से चला गया। उसे समझ आ गया था कि मानव जाति की निःस्वार्थ सेवा से ही मनुष्य को शांति प्राप्त हो सकती है।
ऊं तत्सत...
No comments:
Post a Comment