काशी सत्संग: किसका अपराध, सजा किसको! - Kashi Patrika

काशी सत्संग: किसका अपराध, सजा किसको!


प्राचीन काल की बात है, रुरु नामक एक मुनि-पुत्र था। वह सदा घूमता रहता था। एक बार वह घूमता हुआ स्थूलकेशा ऋषि के आश्रम में पहुंचा। वहां एक सुंदर युवती को देख वह उस पर आसक्त हो गया।
रुरु को उस अद्भुत सुंदर युवती के विषय में ज्ञात हुआ कि वह किसी विद्याधर की मेनका अप्सरा से उत्पन्न पुत्री थी। अप्सराओं की संतान का पालन-पोषण भी कोयलों के समान अन्य माता-पिताओं द्वारा होता है। इसी प्रकार प्रमद्वरा नाम की मेनका की उस पुत्री का पालन-पोषण भी स्थूलकेशा ऋषि ने किया था। उन्होंने ही उसका नाम भी प्रमद्वरा रखा था।
प्रमद्वरा पर आसक्त रुरु स्वयं को न रोक सका और स्थूलकेशा ऋषि के पास जाकर उस कन्या की मांग कर दी। पर्याप्त सोचने और विचारने के बाद ऋषि इसके लिए सहमत हो गए। दोनों का विवाह होना निश्चित हो गया, किंतु विवाह की तिथि समीप आने पर प्रमद्वरा को एक सर्प ने डस लिया।
इस सूचना के मिलने पर रुरु के दुख की कोई सीमा न रही। वह चिंतामग्न बैठा था कि तभी आकाशवाणी हुई- 'हे रुरु! यदि तुम इसे अपनी आधी आयु दे दो तो यह पुन: जीवित हो जाएगी, क्योंकि अब इसकी आयु समाप्त हो गई है।'
आकाशवाणी सुनकर रुरु बड़ा प्रसन्न हुआ। उसने सहर्ष अपनी आधी आयु प्रमद्वरा को दे दी। इसके बाद प्रमद्वरा के स्वस्थ होने पर उनका विवाह हो गया।
इसके पश्चात रुरु को सर्पों से बैर हो गया। वह जिस सर्प को भी देखता, तुरंत मार डालता। यहां तक कि पानी में रहने वाले विषहीन सर्प भी उसके कोप से न बचते।
सर्पों के प्रति उसकी हिंसा भावना बनी रही। एक बार उसने एक पानी का सर्प देखा। वह उसे मार डालना चाहता था कि तभी वह पानी का सर्प मनुष्य की भाषा में बोला- ठहरो युवक! यह सच है कि तुम्हारी प्रियतमा को एक सर्प ने डस लिया था, उन पर तो तुम्हारा क्रोध उचित है, किंतु हम डुंडुभों (विषहीन पानी के सर्पों) को क्यों मारते हो, हममें तो विष ही नहीं होता।
यह जानकर रुरु को बड़ा दुखद आश्चर्य हुआ कि जल के सर्पों में विष ही नहीं होता। रुरु ने उससे कहा- हे डुंडुभ! तुम कौन हो? जल सर्प बोला - पूर्व जन्म में मैं भी एक मुनि का पुत्र था। शाप के कारण मैं इस योनि में आया हूं। अब तुम से बात करने के बाद मेरा शाप भी छूट जाएगा। इतना कह वह लुप्त हो गया।
विषहीन सर्प की बात सुनकर रुरु के ज्ञान चक्षु खुल गए। उसे अपने किए पर पश्चाताप होने लगा कि मैं व्यर्थ ही निर्दोष सर्पों की हत्या करता रहा। उस दिन के पश्चात उसने सर्पों को मारना बंद कर दिया। सच ही तो है, किसी एक व्यक्ति के लिए अपराध की सजा उसी को मिलनी चाहिए न कि उसके सारे परिवार अथवा उसकी जाति को। ऐसा सोचना तो उनकी क्षुद्र-बुद्धि का परिचय ही है।
ऊं तत्सत...

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