संन्यास तो सिर्फ जाने की तैयारी है। संन्यास तो इस बात की घोषणा है कि मैं जाने को तैयार हूं। फिर तीन मार्ग हो जाते हैं। कोई ज्ञान पर जाएगा, कोई भक्ति पर, कोई कर्म पर। संन्यास तो सिर्फ जाने की तैयारी है...
तुम पूछते हो क्या सन्यास भक्ति की शुरुआत है? मैं कहता हूं सन्यास सिर्फ शुरुआत है। न भक्ति की न ज्ञान की, न कर्म की। संन्यास सिर्फ शुरुआत है। फिर तीन मार्ग हो जाते हैं। कोई ज्ञान पर जाएगा, कोई भक्ति पर, कोई कर्म पर। संन्यास तो सिर्फ जाने की तैयारी है। संन्यास तो इस बात की घोषणा है कि मैं जाने को तैयार हूं। इसके बाद मार्ग अलग हो जाएंगे। तीन तरह के लोग हैं- कुछ हैं जो कर्मोन्मुख हैं। वे कृत्य के माध्यम से परमात्मा तक पहुंचेंगे। उनके पास बड़ी ऊर्जा है। उनसे तुम कहो कि आंख बंद करके बैठ जाओ और ध्यान करो, तो उन्हें बड़ी अड़चन हो जाएगी। छोटे बच्चे को कहो कि आंख बंद करके ध्यान करो, वह बैठ भी जाएगा आंख बंद करके तो हिलेगा-डुलेगा, हाथ-पैर चलाएगा, करवटें बदलेगा, इधर खुजलाएगा, उधर खुजलाएगा, बीच-बीच में आंख खोलकर देखेगा। जिनके पास बच्चों की तरह सामान्य से ज्यादा ऊर्जा है, उनके लिए कृत्य ही मार्ग बनेगा। फर्क इतना ही हो जाएगा कि अब कृत्य उनका नहीं होगा, परमात्मा का होगा, वे उपकरण होंगे। यही भेद होगा संन्यासी और संसारी में। काम तो दोनों करेंगे, संन्यासी भी करेगा, संसारी भी करेगा। संसारी करता है इस भाव से कि मैं कर्ता; और संन्यासी करता है इस भाव से कि प्रभु कर्ता है, मैं सिर्फ उपकरण, उसके हाथ का हथियार। सन्यासी के उसी समर्पण भाव में क्रांति घटती है।
दूसरा मार्ग भक्ति का है। जैसे स्त्रियाँ हैं, या बहुत से भावुक पुरुष हैं, जिनकी सारी ऊर्जा हृदय के पास संगृहीत है, जिनके हृदय के पास सारी धड़कन है। न तो देह की शक्ति में उनका प्रवाह है और न मसितष्क के विचारों में उनका प्रवाह है, उनका सारा जीवन केंद्रति है भाव के पास, प्रीति उनका द्वार है, वे भक्ति भाव यानी प्रभु के गीत, स्तुति, प्रार्थना-पूजा की विधियों से परमात्मा तक पहुंच सकेंगे।
फिर, जिसकी सारी ऊर्जा मसितष्क में इकट्ठी है, संगृहीत है, वे चिंतन-मनन-निदिध्यासन से परमात्मा तक पहुंचने का मार्ग तलाश सकेंगे। मूल यह है कि संन्यास शुरुआत है परमात्मा की तरफ जाने की। तुमने संकल्प किया कि अब जाता हूं, यात्रा पर निकलूंगा, तुमने अपना बोरिया-बिस्तर बांध लिया, तुम आकर गांव के द्वार पर खड़े हो गए। संन्यास महाप्रस्थान है। अब तीन रास्ते निकलेंगे। जिस दिन तुमने तय कर लिया कि जाना है उस यात्रा पर, प्रभु को खोजना है, फिर तीन रास्ते निकलेंगे। फिर संन्यासी तीन हिस्सों में विभाजित हो जाएंगे। इन तीनों का मिलन होगा अंतिम दिन फिर, लेकिन बीच में कहीं मिलन न होगा। इनके रास्ते बीच में कभी नहीं कटेंगे।
जो भक्ति के मार्ग से गया है, उसे पता ही नहीं चलेगा कि ज्ञानी का रास्ता कहां है, और ज्ञानी कहां खो गया है। जो कर्म के मार्ग से गया है, उसे भक्ति की भाषा समझ में नहीं आएगी। जो ज्ञान के मार्ग से गया है, उसे भी कर्म और भक्ति दुरूह मालूम पड़ेंगी, असंभव मालूम पड़ेंगी। भीतर उसके यही ख्याल होगा कि ये लोग भटक गए, मैं पहुंच रहा हूं। तीनों जानेंगे कि मैं पहुंच रहा हूं, बाकी दो भटक गए। क्योंकि बाकी दो दिखते ही नहीं रास्ते पर कहीं। लेकिन अंतिम घड़ी में फिर मिलन है। प्रस्थान के पूर्व तीनों एक जगह खड़े होते हैं, और जब यात्रा पूरी हो गई तब तीनों फिर एक शिखर पर पहुंच जाते हैं।
■ ओशो
तुम पूछते हो क्या सन्यास भक्ति की शुरुआत है? मैं कहता हूं सन्यास सिर्फ शुरुआत है। न भक्ति की न ज्ञान की, न कर्म की। संन्यास सिर्फ शुरुआत है। फिर तीन मार्ग हो जाते हैं। कोई ज्ञान पर जाएगा, कोई भक्ति पर, कोई कर्म पर। संन्यास तो सिर्फ जाने की तैयारी है। संन्यास तो इस बात की घोषणा है कि मैं जाने को तैयार हूं। इसके बाद मार्ग अलग हो जाएंगे। तीन तरह के लोग हैं- कुछ हैं जो कर्मोन्मुख हैं। वे कृत्य के माध्यम से परमात्मा तक पहुंचेंगे। उनके पास बड़ी ऊर्जा है। उनसे तुम कहो कि आंख बंद करके बैठ जाओ और ध्यान करो, तो उन्हें बड़ी अड़चन हो जाएगी। छोटे बच्चे को कहो कि आंख बंद करके ध्यान करो, वह बैठ भी जाएगा आंख बंद करके तो हिलेगा-डुलेगा, हाथ-पैर चलाएगा, करवटें बदलेगा, इधर खुजलाएगा, उधर खुजलाएगा, बीच-बीच में आंख खोलकर देखेगा। जिनके पास बच्चों की तरह सामान्य से ज्यादा ऊर्जा है, उनके लिए कृत्य ही मार्ग बनेगा। फर्क इतना ही हो जाएगा कि अब कृत्य उनका नहीं होगा, परमात्मा का होगा, वे उपकरण होंगे। यही भेद होगा संन्यासी और संसारी में। काम तो दोनों करेंगे, संन्यासी भी करेगा, संसारी भी करेगा। संसारी करता है इस भाव से कि मैं कर्ता; और संन्यासी करता है इस भाव से कि प्रभु कर्ता है, मैं सिर्फ उपकरण, उसके हाथ का हथियार। सन्यासी के उसी समर्पण भाव में क्रांति घटती है।
दूसरा मार्ग भक्ति का है। जैसे स्त्रियाँ हैं, या बहुत से भावुक पुरुष हैं, जिनकी सारी ऊर्जा हृदय के पास संगृहीत है, जिनके हृदय के पास सारी धड़कन है। न तो देह की शक्ति में उनका प्रवाह है और न मसितष्क के विचारों में उनका प्रवाह है, उनका सारा जीवन केंद्रति है भाव के पास, प्रीति उनका द्वार है, वे भक्ति भाव यानी प्रभु के गीत, स्तुति, प्रार्थना-पूजा की विधियों से परमात्मा तक पहुंच सकेंगे।
फिर, जिसकी सारी ऊर्जा मसितष्क में इकट्ठी है, संगृहीत है, वे चिंतन-मनन-निदिध्यासन से परमात्मा तक पहुंचने का मार्ग तलाश सकेंगे। मूल यह है कि संन्यास शुरुआत है परमात्मा की तरफ जाने की। तुमने संकल्प किया कि अब जाता हूं, यात्रा पर निकलूंगा, तुमने अपना बोरिया-बिस्तर बांध लिया, तुम आकर गांव के द्वार पर खड़े हो गए। संन्यास महाप्रस्थान है। अब तीन रास्ते निकलेंगे। जिस दिन तुमने तय कर लिया कि जाना है उस यात्रा पर, प्रभु को खोजना है, फिर तीन रास्ते निकलेंगे। फिर संन्यासी तीन हिस्सों में विभाजित हो जाएंगे। इन तीनों का मिलन होगा अंतिम दिन फिर, लेकिन बीच में कहीं मिलन न होगा। इनके रास्ते बीच में कभी नहीं कटेंगे।
जो भक्ति के मार्ग से गया है, उसे पता ही नहीं चलेगा कि ज्ञानी का रास्ता कहां है, और ज्ञानी कहां खो गया है। जो कर्म के मार्ग से गया है, उसे भक्ति की भाषा समझ में नहीं आएगी। जो ज्ञान के मार्ग से गया है, उसे भी कर्म और भक्ति दुरूह मालूम पड़ेंगी, असंभव मालूम पड़ेंगी। भीतर उसके यही ख्याल होगा कि ये लोग भटक गए, मैं पहुंच रहा हूं। तीनों जानेंगे कि मैं पहुंच रहा हूं, बाकी दो भटक गए। क्योंकि बाकी दो दिखते ही नहीं रास्ते पर कहीं। लेकिन अंतिम घड़ी में फिर मिलन है। प्रस्थान के पूर्व तीनों एक जगह खड़े होते हैं, और जब यात्रा पूरी हो गई तब तीनों फिर एक शिखर पर पहुंच जाते हैं।
■ ओशो
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