एक बार एक सात वर्ष का बालक एक महर्षि के पास आया! महर्षि को प्रणाम कर उसने अपनी जिज्ञासा उनके समक्ष रखी। बालक बोला- क्या आप मुझे बता सकते है कि कर्म-योग क्या है, क्योंकि जब कभी भी मैं यह प्रश्न अपने माता-पिता से पूछता हूं, तो वे कहते है कि अभी तुम्हें इस विषय मे सोचने की आवश्यकता नहीं है। जब तुम बड़े हो जाओगे, तब अपने आप समझ जाओगे।
बालक की बात सुनकर महर्षि मुस्कुराए और उन्होंने बालक से कहा, “मैं तुम्हें इस प्रश्न का उत्तर दूंगा, लेकिन अभी तुम यहां शांतिपूर्वक बैठ जाओ।” बालक उनकी आज्ञा का पालन कर उनके पास जाकर बैठ गया।
कुछ समय बाद, वहां एक व्यक्ति लड्डू लेकर आया और सारे लड्डू महर्षि के समक्ष रख दिए। महर्षि ने एक लड्डू अपने पास रखा, बाकी लड्डू अन्य लोगों में बांटने का संकेत दिया। अब लड्डू बालक के हाथ में थमाते हुए महर्षि बोले, “जब तक मैं अंगुली से रुकने का इशारा नहीं करता, तब तक तुम लड्डू खाते रहोगे। ध्यान रहे कि मेरे संकेत से पहले तुम्हारा लड्डू खत्म नहीं होना चाहिए, पर जैसे ही मैं अंगुली उठाकर संकेत दूं, तुम्हारे हाथ में उसके बाद लड्डू शेष नहीं बचना चाहिए। उसी क्षण खत्म हो जाना चाहिए।”
महर्षि की सुनते ही बालक ने पूरी एकाग्रता से अपनी दृष्टि महर्षि पर टिका दी। उसका मुख बेशक ही लड्डू खा रहा था, किंतु उसकी आंखें एकटक महात्मा पर केन्द्रित थी। अचानक उसे अपेक्षित संकेत मिला और इशारा मिलते ही बालक ने बचा हुआ लड्डू एकसाथ मुंह में डाल लिया। महर्षि बोले, “अभी-अभी तुमने जो किया, वास्तव में वही कर्म-योग है।
उन्होंने आगे समझाते हुए कहा- 'देखो! जब तुम लड्डू खा रहे थे, तब तुम्हारा ध्यान केवल मुझ पर था! तुम हर क्षण मुझे ही देख रहे थे। ठीक इसी प्रकार संसार के सभी कार्य-व्यवहार करते हुए भी अपने मन-मस्तिष्क को ईश्वर (पूर्ण गुरु) पर केन्द्रित रखना। यानी ईश्वर में स्थिर रहते हुए अपने सभी कर्तव्यों को पूर्ण करना ही वास्तविक कर्म योग है।
ऊं तत्सत...
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