द्रोणाचार्य उन दिनों हस्तिनापुर में गुरुकुल के बालक पांडव एवं कौरवों को अस्त्र-शस्त्र की शिक्षा दे रहे थे। एक दिन एक काले भील बालक उनके समीप आया। उसने आचार्य के चरणों में प्रणाम करके प्रार्थना की, मेरा नाम एकलव्य है। मैं इस आशा से आया हूं कि आचार्य मुझ पर अनुग्रह करेंगे और मुझे अस्त्र संचालन सिखाएंगे।
आचार्य को उस बालक की नम्रता प्रिय लगी, किंतु राजकुमारों के साथ वे एक भील-बालक को रहने की अनुमति नहीं दे सकते थे। उन्होंने कह दिया, केवल द्विजाति ही किसी भी गुरुगृह में लिए जाते हैं। आखेट के योग्य शस्त्र-शिक्षा तो तुम अपने गुरुजनों से भी पा सकते हो। अस्त्र-संचालन की विशिष्ट शिक्षा तुम्हारे लिए अनावश्यक है। प्रजापालन एवं संग्राम जिनका कार्य है, उसके लिए ही उसकी आवश्यकता होती है।
एकलव्य वहां से निराश होकर लौट गया, किंतु उसका उत्साह नष्ट नहीं हुआ। उसमें अस्त्र-शिक्षा पाने की सच्ची लगन थी। वन में उसने एकांत में एक कुटिया बनाकर द्रोणाचार्य की मिट्टी की प्रतिमा बना कर स्थापित की और स्वयं धनुष-बाण लेकर उस प्रतिमा के सम्मुख अभ्यास करने में जुट गया।
द्रोणाचार्य एक बार अपने शिष्यों के साथ वन में घूम रहे थे। पांडवों का एक कुत्ता उनके साथ से अलग होकर वन में उधर चला गया, जिधर एकलव्य लक्ष्यवेध का अभ्यास कर रहा था। कुत्ता उस काले भील को देखकर भौंकने लगा। उसके भौंकने से एकलव्य के कान में बाधा पड़ी, इसलिए उसने बाणों से उस कुत्ते का मुख भर दिया। इससे घबराकर कुत्ता पांडवों के समीप भाग आया।
सभी पांडव तथा कौरव राजकुमार कुत्ते की दशा देखकर हंसने लगे, किंतु अर्जुन को बड़ा आश्चर्य हुआ। कुत्ते के मुख में इस प्रकार बाण मारे गए थे कि कोई बाण उसे चुभा नहीं था। इतनी सावधानी और शीघ्रता से बाण मारना कोई हंसी-खेल नहीं था। आचार्य द्रोण भी उस अद्भुत धनुर्धर की खोज में निकल पड़े, जिसने यह आतर्कित कार्य साध्य कर दिखाया था।
द्रोणाचार्य को देखते ही एकलव्य दौड़कर उनके चरणों में गिर पड़ा और द्रोणाचार्य उसकी कुटिया में अपनी मिट्टी की प्रतिमा देखकर आश्चर्यचकित हो उठे। इसी समय अर्जुन ने धीरे से उनसे कहा, “गुरुदेव! आपने वचन दिया था कि आपके शिष्यों में मैं सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर होऊंगा, किंतु इस भील के सम्मुख तो मेरा हस्तलाघव नगण्य है।”
आचार्य ने संकेत से ही अर्जुन को आश्वासन दे दिया। एकलव्य से उन्होंने गुरु दक्षिणा की मांग की और जब उसने पूछा-कौन-सी सेवा करके मैं अपने को धन्य मानूं? तब आचार्य ने बिना हिचके कह दिया, अपने दाहिने हाथ का अंगूठा मुझे दे दो। अनुपम वीर, अनुपम निष्ठावान एकलव्य अनुपम धीर भी सिद्ध हुआ। उसने तलवार उठाकर दाहिने हाथ का अंगूठा काटा और आचार्य के चरणों के पास उसे आदरपूर्वक रख दिया। अंगूठे के कट जाने से वह बाण चलाने योग्य नहीं रह गया। बाएं हाथ से बाण चला देने पर भी वह धनुर्धरों की गणना में कभी नहीं आ सका। किंतु अपनी निष्ठा, त्याग और अनोखी गुरु दक्षिण के कारण एकलव्य इतिहास में अमर हो गया।
ऊं तत्सत...
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