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काशी सत्संग: अदर कुछ, बाहर कुछ


एक राजा से एक चित्रकार ने अनुरोध किया- राजन, क्या मैं आपका चित्र बना सकता हूं? राजा ने अनुमति देते हुए कहा-जिस प्रकार चंद्रमा तारों के बीच सुशोभित होता है, उसी प्रकार सभासदों के साथ मेरा चित्र बनाओ। चित्रकार को दूसरे दिन आने के लिए कहा गया। यह बात दरबार में फैल गई। रात में जब चित्रकार अपने कमरे में आराम कर रहा था, तो उसके पास राजा का एक दरबारी पहुंचा। उसने चित्रकार से कहा- “देखो, मेरे कान छोटे हैं। पर चित्र में मेरे कान छोटे नहीं दिखने चाहिए।” उसके जाने के बाद दूसरा दरबारी आया जो वृद्ध था। उसने कहा-“बंधु, अब मैं बूढ़ा हो गया हूं लेकिन जब मैं महाराज की सेवा में आया था, तब मैं युवा था। चित्र में मुझे युवा ही दिखाना।” थोड़ी देर बाद एक और दरबारी सकुचाते हुए आया और बोला- “देखो, अभी मेरा पेट निकल गया है। चित्र में पेट इस रूप में न आए तो ठीक रहेगा। शरीर का क्या भरोसा, वह तो बदलता रहेगा, पर चित्र तो हमेशा रहेगा।” इस तरह कई दरबारी आए और सबने अपनी कोई न कोई कमजोरी छिपाने का अनुरोध किया। दूसरे दिन चित्रकार ने चित्र बनाया। राजा ने चित्र देखा तो हैरान रह गया। उसने कहा- मेरा चित्र तो तुमने सही बनाया, पर दरबारियों के चेहरे पर मुखौटा क्यों लगा दिया? चित्रकार ने राजा को सारी बात बताते हुए कहा- “महाराज, मैं क्या करता। कोई भी दरबारी अपने असली रूप में नहीं दिखना चाहता था।” सच है मित्रों, हम सब दोहरा जीवन जीते हैं। अंदर से कुछ होते हैं, पर ऊपर से कुछ और दिखना चाहते हैं। स्वयं को स्वीकारें और ऐसे बने कि स्वयं को प्रस्तुत करने में शर्म महसूस न हो।
ऊं तत्सत...

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