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काशी सत्संग: माया की लीला

श्रीहरि के परम भक्त देवर्षि नारद के मन में एक बार जिज्ञासा जगी कि इस माया की लीला आखिर है क्या? नारद जी ने अपनी यह जिज्ञासा भगवान श्रीहरि के समक्ष रखी। भगवान विष्णु मुस्कराए, फिर नारद जी से कहा- “उत्तर के लिए उचित समय की प्रतीक्षा करो।”
एक दिन अनायास भगवान विष्णु ने उनसे कहा- “देवर्षि आज हमारे साथ धरती पर भ्रमण के लिए चलो।” चलते हुए वे धरती के एक वन प्रांत में पहुंचे। बड़ा सुंदर स्थान था। इस स्थान के पास ही एक सुंदर सरोवर था। श्रीहरि की प्रेरणा और माया के प्रभाव से देवर्षि की इच्छा सरोवर में स्नान करने की हुई। जब देवर्षि सरोवर में स्नान करके बाहर निकले, तो उनका स्वरूप एक सुंदर नवयुवती का था। देवर्षि अपने पूर्व परिचय को भूल चुके थे। उनके इस स्वरूप पर वन में आखेट के लिए आए एक राजकुमार की दृष्टि पड़ी। राजकुमार ने उनके सामने विवाह का प्रस्ताव रखा, जिसे उन्होंने स्वीकार कर लिया। दोनों का विवाह हो गया।
विवाह को एक वर्ष से अधिक समय हो चुका था। इसी बीच उनको एक पुत्र हुआ। एक दिन राजकुमार के मन में आया कि उसी सरोवर तट पर चलते हैं, जहां वह पहली बार अपनी पत्नी से मिला था। पति के साथ पत्नी भी सरोवर की ओर चल पड़ी। सरोवर तट पर पहुंच कर पत्नी के मन में स्नान करने की इच्छा हुई। राजकुमार की पत्नी जब स्नान करके सरोवर से बाहर निकली, तब उसने अपना पूर्व का रूप प्राप्त कर लिया था यानी अब वह नारद के रूप में थी। इधर देर तक राजकुमार की पत्नी सरोवर से बाहर नहीं आई, तो राजकुमार ने उसे तलाशने की हरसंभव कोशिश की, पर सफलता नहीं मिली। आखिरकार राजकुमार रोता-बिलखता वापस अपने भवन लौट आया। इधर देवर्षि नारद ने देखा कि सामने वृक्ष की छांव में भगवान बैठे हुए मुस्करा रहे हैं। जब देवर्षि उनके पास पहुंचे, तो उन्होंने हंसते हुए कहा- “देवर्षि! आपको माया की लीला एवं उसके प्रभाव की अनुभूति हो गई!” देवर्षि को भी ये सारी घटनाएं याद आ गईं थीं। उन्होंने कहा- “हे प्रभु! आपके अनुग्रह से मुझे माया की अनुभूति गई।”
कबीर कहते हैं-
'कबीर' माया जिनि मिले, सौ बरियाँ दे बाँह।
नारद से मुनियर मिले, किसो भरोसौ त्याँह ॥
भावार्थ-कबीर कहते हैं-अरे भाई, यह माया तुम्हारे गले में बाहें डालकर भी सौ-सौ बार बुलाए, तो भी इससे मिलना-जुलना अच्छा नहीं। जब नारद-सरीखे मुनिवर को यह समूचा ही निगल गई, तब इसका विश्वास क्या?
ऊं तत्सत...

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