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अरे भई! खेल को समझो

खेलते समय बच्चों के चेहरे का भाव देख अंदाजा लगाना मुश्किल नहीं कि वे कितने आनंदित हैं! लेकिन, हमने खेल को भी युद्ध बना लिया है और...

पहली बात, कभी आप खेल खेलते हैं, तो न कोई राग, न कोई द्वेष; खेलने का आनंद ही सब कुछ होता है। मगर मआदतें हमारी बुरी हैं, इसलिए खेल को भी हम काम बना लेते हैं। वह हमारी गलती है। समझदार तो काम को भी खेल बना लेते हैं। वह उनकी समझ है। हम अगर शतरंज भी खेलने बैठें, तो थोड़ी देर में हम भूल जाते हैं कि खेल है और सीरियस हो जाते हैं। वह हमारी बीमारी है। गंभीर हो जाते हैं। हार-जीत भारी हो जाती है। जान दांव पर लग जाती है। कुल जमा लकड़ी के हाथी और घोड़े बिछाकर बैठे हुए हैं! कुछ भी नहीं है; खेल है बच्चों का। लेकिन भारी हार-जीत हो जाएगी। गंभीर हो जाएंगे। गंभीर हो गए, तो खेल काम हो गया। फिर राग-द्वेष आ गया। किसी को हराना है; किसी को जिताना है। जीतकर ही रहना है; हार नहीं जाना है। फिर द्वंद्व के भीतर आ गए। शतरंज न रही फिर, बाजार हो गया। शतरंज न रही, असली युद्ध हो गया!
मनोवैज्ञानिक तो कहते हैं कि शतरंज भी कोई पूरे भाव से खेल ले, तो उसकी लड़ने की क्षमता कम हो जाती है, क्योंकि लड़ने का कुछ हिस्सा निकल जाता है। निकास हो जाता है। हाथी-घोड़े लड़ाकर भी, लड़ने की जो वृत्ति है, उसको थोड़ी राहत मिल जाती है। हराने और जिताने की जो आकांक्षा है, वह थोड़ी रिलीज, उसका धुआं थोड़ा निकल जाता है।
हम खेल को भी बहुत जल्दी काम बना लेते हैं। लेकिन खेल काम नहीं है। बच्चे खेल रहे हैं। खेल काम नहीं है। खेल सिर्फ आनंद है, अनमोटिवेटेड। रस इस बात में नहीं है कि फल क्या मिलेगा। रस इस बात में है कि खेल का काम आनंद दे रहा है।
■ ओशो

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