सनातन काशी का कण-कण शंकर है। परमधाम काशी में धर्म चिरस्थाई और शाश्वत है। कभी यहाँ तथागत बुद्ध उपदेश देते है तो वही मध्यकाल में कबीर, तुलसी, रैदास की सामाजिक चेतना के रूप में धर्म आम जन के दैनिक क्रियाकलापों के रूप में रचा-बसा मिलता हैं। अनेकानेक साधु-संतो,मठों, आश्रम,गुरुकुल,धर्मप्रचारकों की एक लम्बी श्रृंखला है जो काशी को धर्मक्षेत्र के रूप में अग्रणी पंक्ति में रखती है। इन्हीं सबके बीच काशी में जिन परम्परा की भी एक लम्बी थाती है जिसमे जैन धर्म के 24 में से चार प्रमुख तीर्थंकर पार्श्वनाथ (तेइसवें), सुपार्श्वनाथ (सातवें), त्रेयांसनाथ (ग्यारहवें) व चंद्रप्रभुनाथ जी (आठवें) का जन्मस्थल धर्म नगरी काशी हैं।
वाराणसी के जैन देवालय
हर ठौर गुजरी आहिस्ते से
हस्ती-खिलखिलाती रुककर खींचती अंगड़ाइयाँ लेते
'सिफ़र' कई और सफर है तुझी से रूबरू
साथ ही रहना ऐ जिंदगी; हमसफ़र बनकर........
'मिर्ज़ापुर' बड़ा ही दिलचस्प जिला है; बनारस से लगभग 60 किमी दक्षिण-पश्चिम में माँ गंगा के किनारे बसा मुख्य शहर और बीहड़ पहाड़ियों में छोटे-बड़े बसे अनगिनत बस्तियों वाला। चट्टानों से अठखेलियाँ करते जूझते बनते-बिगड़ते अनगिनत बरसाती और सदानीरा पहाड़ी झड़ने, पथरीले वीराने में अटके दिन-रात, गांव, जंगल, जनावर, मंदिर-मस्जिद, आमिर-ग़रीब; बहुत कुछ वैसा ही जैसा दुनियां के किसी और कोने सा। बस एक बात है जो इसे औरो से अलग करता है वो है प्रकृति की गोद मे बैठा एकटक निहारता शाम का सख्त सन्नाटा जो सूरज के साथ ही ढलते बढ़ता जाता है, रात होते घुप्प अँधेरे में खो जाने को बोझिल बनते-बिगड़ते किसी भी जगह बनने वाले फ़रेबी सपनों में। यकीन मानिए इन कुछ दिलकश लम्हों को अगर करीब से जीना है तो यही आना होगा-भेड़चाल की कश्मक़श से ऊबकर। इन चंद लम्हों के सन्नाटे में वो सबकुछ है जिसे शायद कभी किसी शायर ने लिखा हो या जीवन की सघन समझ रखने वाले किसी कवि या दार्शनिक ने यूं ही झूमकर बतलाया हो।
देसी बोल है 'मिर्ज़ापुरी बगल में छूरी' कुछ ऐसे ही लोग भी है स्याह जिंदगी की सच्चाई से रूबरू हुए, जानते है - अच्छाई भली थी जीने को जबतक धरती पर इंसान रहते थे अब तो हम है। वैसे तो यहाँ देखने, करने और जीने को बहुत कुछ है जैसे माँ विंध्यावासनी का दरबार, माँ गंगा का किनारा, पहाड़ी सुबह-शाम, गांव, जंगल, जानवर, प्रागैतिहासिक गुफाएँ, ऐतिहासिक किले, रजवाड़ों की हवेलियां, गांव, झड़ने, पास बसे फॉसिल और रेत में लिपटा मिनी गोआ। पर इस बार इस घुमक्कड़ से आपका साथ मिर्ज़ापुर मुख्य राजमार्ग को काटते हुए गुजरे सिरसी बांध और झड़ने का है।
बात बीते साल की है, जब हमारे अभिन्न मित्र पहुंचे मिर्ज़ापुर दर्शन को तो हमलोगों ने झटपट प्लान बनाया सिरसी का। प्रकृति की गोद में बैठा एक मनोरम स्थल। दूर तक फैला डैम का पानी और झड़ने से निर्बाह बहता जलरूपी अथाह प्रेम और जीवन। सड़क पर दौड़ती मोटरबाईक और दिल में कौतुहल लिए, हम सभी पहुंच गए सिरसी। मिर्ज़ापुर शहर से रास्ता करीब 2.5 घण्टे का है राबर्ट्सगंज-सोनभद्र मुख्य राजमार्ग से रास्ता मड़िहान से पहले कटता है जो पथरीले गांव और पहाड़ी इलाकों से होता सीधे सिरसी पहुँचता है। सिरसी डैम एक वृहद् भूमिका है जिससे आभास होता है किसी बड़े झील का, मोहक पहाड़ियों से घिरा, जिसके एक छोर का पता ही नहीं लगता। डैम का पानी मुख्य रूप से कृषि कार्य की सिंचाई में प्रयोग होता है और साल भर बना रहता है। डैम को पार कर रास्ता सिरसी फॉल को पहुंच जाता है। पथरीली संरचना है जहां एक ओर तो पानी डैम को जाता है और दूसरी ओर प्रवाह अवरुद्ध है। आप झड़ने के हर ढलान को ऊपर से घूम कर देख सकते है और नीचे उतरकर बनी छोटी झील का भी आनंद ले सकते है। जगह बिलकुल ही बियाबान है और खासकर गर्मियों के मौसम में तो यहाँ विरले ही कोई आता होगा जब चट्टानें तप्त सूर्य सा जलती है।
ट्रैकिंग और एडवेंचर से भरा दिन खूब बीता। शाम को वहीं पर भोजन और धुंधलके में बाईक की रौशनी में हम पथरीले रास्तों से गुजरते वापस लौटे। सिरसी की बियाबान पहाड़ियों में बैठकर ढ़लते सूरज को देखना एक नैसर्गिक अनुभव है।
वर्तमान में राज्य सरकार सैलानियों के बोटिंग, एडवेंचर स्पोर्ट्स और विभिन्न पर्यटन सम्बंधी क्रियाकलापों के लिए डैम को प्रयोग में लाने के प्रस्ताव पर गंभीरता से विचार कर रही है। रोपवे और स्काईवे भी इन्हीं कुछेक भविष्य के प्रयास होंगे।
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अगले महीने 4 अगस्त को नासा अपने प्रोब पारकर को लॉंच करेगा। ये सूर्य की कोरोना और इसके हीट वैव के कारणों का पता लगाएगा। ये अपनी तरह का पहला मिशन होगा जिसमे कोई मानव निर्मित सेटेलाईट सूर्य के इतने नजदीक जाकर हमें उसके बारे में जानकारी देगा। कुछ समय तक पहले ये संभव नहीं था क्योकि सूर्य का तापमान बहुत अधिक हैं। पर नई खोजों ने इस मिशन को कामयाब बनाया हैं।
इस प्रोब में एक ख़ास तरीके का कार्बन शील्ड लगा हैं जो इसे सूर्य की अत्यधिक गर्मी से बचाएगा। इस मिशन की ख़ास बात ये हैं कि सिर्फ तीन महीने के भीतर ही दिसंबर से सूर्य के पास पहुंचकर हमें उसकी तस्वीरें और जानकारी भेजने लगेगा।
टेस्ट ट्यूब आर्टिफीसियल न्यूरल नेटवर्क मॉलिक्युलर लिखाई को पहचानने में सक्षम बना
हाल ही में वैज्ञानिकों ने टेस्ट ट्यूब आर्टिफीसियल न्यूरल नेटवर्क का निर्माण DNA से किया हैं। इस नए प्रयोग में परिणाम क्रन्तिकारी हो सकते हैं। ये भविष्य में बनने वाली सभी वस्तुओं की मॉलिक्यूल से बनने की सम्भावना को दर्शाता हैं जिससे सभी निर्मित वस्तुए पर्यावरण की प्रति ज्यादा संवेदनशील बनेंगी। पुराने सभी कम्प्यूटर में कठिन कार्यों में लेखन को पहचानना सबसे कठिन हैं पर टेस्ट ट्यूब आर्टिफीसियल न्यूरल नेटवर्क से ये संभव हैं। अपने परीक्षण के
चैत्र नवरात्र- वर्तमान समय में क्या करे?
शरण्ये त्र्यंबके गौरी नारायणि नमोस्तुते॥
दिहबे अरघिया घाट हम जाइके...
यह पर्व भारतीय कैलेंडर के अनुसार कार्तिक शुक्ल षष्ठी अर्थात दीपावली से ठीक छठे दिन मनाया जाता है। छठ पर्व भगवान् भास्कर को समर्पित है, जिसमें व्रती स्वच्छता के कठिन नियमों का पालन करता हुआ सूर्य की उपासना करता है। सूर्य को समर्पित होने के कारण इसे सूर्य षष्ठी के रूप में भी माना जाता है। समान्यतः छठ पूजा का व्रत घर की महिलाएं ही करती हैं, पर यदा-कदा पुरुष व्रती भी मिल जाते हैं।
ऐतिहासिक परिचय
छठ पूजा का इतिहास बहुत पुराना है, माना जाता है कि वैदिक युग से ही इसका प्रचलन भारत में रहा है। ऋग्वेद की अनेक ऋचाओं में भगवान् सूर्य को समर्पित श्लोक लिखे गए हैं और इसी सूर्य उपासना का एक रूप छठ पूजा है। माना जाता हैं कि महाभारत काल में द्रौपदी ने यह पूजा पाण्डवों के कुशल क्षेम के लिए की थी, जिससे उनके जीवन की कठिनाइयां कम हो और उन्हें अपना खोया राज्य पुनः प्राप्त हो सके। महाभारत में सूर्यपुत्र कर्ण को भी छठ पूजा करने का श्रेय दिया जाता है, जिसके बल और पौरुष ने युद्ध में पाण्डवों को शंकित कर दिया था। अनेक मान्यताओं में छठ पूजा का सबसे सही उल्लेख वैदिक युग के ऋग्वेद में किया गया है, जहाँ ऋषि-महात्मा अपने शरीर को भोजन से दूर रख कर निर्बाध रूप में सूर्य का प्रकाश ग्रहण करते थे।
अनुष्ठान पद्धति
वैसे तो दीपावली के त्यौहार के ठीक बाद ही छठ पूजा का आरम्भ हो जाता है। व्रती घर की साफ-सफाई में लग जाता है और घर को सभी रीतियों से पवित्र करते हुए व्रती सूर्य को अर्पित करने वाले भोग के निर्माण में लग जाता हैं, पर मुख्यतः यह पर्व चार दिनों का होता हैं।
१- नहाई-खाई
छठ के पहले दिन व्रती व्रत को ग्रहण करते हुए अपने घर को पूर्ण रूप में पवित्र करते हैं। इसके लिए व्रत का संकल्प लेते हुए सुबह नदी में स्नान करने से शुरुआत होती है और दिन भर में केवल एक बार ही भोजन ग्रहण किया जाता है। भोजन में भी विशेषता है कि चावल, चना दाल और लौकी बनाया जाता है। व्रती सिर्फ एक बार आहार ग्रहण करते हुए पर्व के प्रथम दिन का उपवास पूर्ण करता है। इस दिन चावल और लौकी का विशेष महत्व है, इसलिए इसे लौकी-भात भी कहते हैं।
२-खरना
छठ के दूसरे दिन व्रती दिन भर उपवास रखता है और शाम को सूरज ढलने के बाद एक बार भोजन ग्रहण करता हैं। इस दिन खीर का विशेष महत्व होता है। व्रती शाम को भूमि पूजन करने के बाद रसाइओ खीर, सोहरी और केले का भोग भगवान् को अर्पित करता हैं और पूरा परिवार प्रसाद को ग्रहण करता है। इसी दिन से व्रती छठ के लिए 36 घण्टे के उपवास में प्रवेश करता है, जो बिना जल ग्रहण किए किया जाता है।
३-छठ संध्या अरग
यह छठ का सबसे महत्वपूर्ण दिन होता है। शाम को इसमें व्रती अपने परिवार, सगे-संबंधियों, और पड़ोसियों के साथ एक गुट में गाते-बजाते निकट की नदी या तालाब में जाकर घुटने तक पानी में प्रवेश किए हुए डूबते सूर्य को अरग देता है। अरग और सूप इसके अभिन्न अंग हैं। व्रती उपवास के साथ सुबह से ही अरग में दिए जाने वाले भोग को तैयार करता है। खजुरी इसका मुख्य अंग है, जिसे इस विशेष अवसर पर तैयार किया जाता है। इसमें सूर्य को अरग में फल, फूल, अंकुरित अनाज, नारियल, मिठाई, गन्ना, खजुरी और सूप अर्पित किया जाता हैं। इस दिन रात के पूजा का विशेष महत्व होता है, जिसमें जलते दीपक को पांच गन्नों के बीच रख कर पूजा की जाती है। यह पांच गन्ने पंचतत्व को प्रदर्शित करते हैं। यह पूजा मुख्यतः उन घरों में बड़े धूम-धाम से होती हैं, जिसमें निकट ही कोई शादी या बच्चे का जन्म होता है।
४- छठ सूर्योदय/पारण/बिहनिया अरग
यह छठ पूजा का अंतिम दिन होता है, जिसमें व्रती अपने सगे-संबंधियों के साथ सूर्य उदय से पूर्व ही नदी के पास पहुंच जाते हैं और छठ संध्या की रीती दोहराते हुए उगते सूर्य को अरग देते हैं। इसके साथ ही पर्व पूर्ण हो जाता हैं जान-पहचान वालों में प्रसाद वितरित किया जाता है और सामाजिक शिष्टाचार में मिलने-मिलाने की प्रथा पूर्ण की जाती है।
मूल रूप से यह पर्व बिहार, झारखण्ड और छत्तीसगढ़ में मनाया जाता हैं। छोटे रूप में उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र और मध्यप्रदेश के कुछ भागों में भी छठ का आयोजन होता है। वर्तमान में छठ पर्व लगभग सम्पूर्ण भारत में मनाया जाता है। साथ ही साथ अब इसे विदेशों में भी आंशिक रूप में मनाया जाने लगा हैं। छठ सामूहिक रूप में साथ रहने और जीवन प्रदान करने वाले सूर्य के प्रति अपने श्रद्धा प्रकट करने का त्यौहार है, जिसे भारत की प्रकृति पूजा का एक उदाहरण माना जाना चाहिए।
⬛सिद्धार्थ सिंह
धान के खेतों में मुस्कुराती बरसात की बूंदे
धूल को नजदीक से देखना या जीना हो, तो कभी भारत के गावों की ओर देखिए। तप्त धरा से जब लपलपाती आग की तरह गर्म हवाए धूल के अम्बार को लेकर आगे बढ़ती हैं, तो सच मानिए केवल किसान ही उनमें सृजन के बीज देख सकता है। खड़ी धूप, धूल और अनगिनत सपने मिलकर उसके चेहरे को हल्का काला रंग दे देती हैं, जिस पर पड़ी रेखाएं सुर्ख हो जाती हैं, जो आधुनिक क्रीम से सने चेहरों के सामने कत्तई सुन्दर नहीं दिखेंगे। किसी कवि ने लिखा होता तो बेशक जानिए वो लिखता ये श्रम का रंग है।
पहली बरसात के बाद जब हम बजबजाते नालों, वॉटर लॉगिंग और सीवर ओवरफ्लो जैसे कठिन शब्दों से जूझ रहे होते हैं, तब तक अन्नदाता खेतों की मेड़, जोताई और पानी के बहाव के लिए स्वयं ही नालियों का निर्माण कर चुका होता है। 'इंतजार' इसके जीवन का एक अद्भुत शब्द है, जिसे ये चाह कर भी नहीं छोड़ सकता। इसकी कहानी इसी एक शब्द के इर्द-गिर्द गुथी होती है।
बरसात अच्छी हुई नहीं कि छींटे बीजों से निकले धान के नन्हे-नन्हे पौधों को ये कीचड़ और पानी से लबालब खेतों में रोपना शुरू कर देता है। उत्सव सा माहौल होता है, पूरा परिवार मिलकर यानी बच्चे से बूढ़े तक अन्न सृजन में जुट जाते हैं। मजाल है प्रकृति प्रदत एक भी पौधा इस जल और कीचड़ से बने तालाब में इधर से उधर हो जाए।
सच मानिए, क्षितिज तक फैली इस हरी धरा में जब मेघ बरसते हैं, तो धान के खेतों में हर पौधे को सहलाती बूंदे किसान के चेहरे की कालिमा को सुनहला कर जाती हैं।
-सिद्धार्थ सिंह