रमज़ान का पाक महीना, रोज़े का बीसवां दिन और हम जा पहुंचे खुदा का दजरा रखने वाले सूफी की मज़ार पर मत्था टेकने। जी हां, यहां जि़क्र हो रहा है दुनिया भर में मशहूर हज़रत मखदूम फकीह अली माहिमी की दरगाह का। लंबे अरसे से बाबा के दर पर जाने की मंशा थी और जब पहुंचे, तो
मानो ज़ुबान को ताला लग गया और भूल गए सारी मन्नतें, सारी ख्वाहिशें। ऐसा लगा, जैसे खुद ब खुद पाक परवरदिगार हमसे रूबरू हो दिल की धड़कने गिन रहा हो। मज़ार की चादर को पलकों से लगाकर मत्था टेका, तो बाबा की प्यार भरी छुअन सिर पर महसूस की। कहते हैं खुदा अपने हर बंदे की खबर रखता है, ऐसे में ऊपर वाले से क्या कहना!
हज़रत मखदूम फकीह अली माहिमी की दर हर मज़हब, हर कौम के लिए एक है और यहां से लौटने वाले की झोली कभी खाली नहीं रहती। दरगाह पर हर खास ओ आम दस्तक देकर खुद को खुशनसीब समझता है।इतिहास का जि़क्र करें, तो हज़रत मखदूम फकीह अली माहिमी की पैदाइश अरब से आकर माहिम द्वीप पर बसे परिवार में सन 1372 ई. (776 हिजरी) में हुई थी। उनके वालिद इराक व कुवैत की सीमा से पहले गुजरात आए, इसके बाद वे मुम्बई के करीब कल्याण पहुंचे, फिर यहां माहिम में आकर बस गए, जहां बाबा मखदूम अली माहिमी पैदा हुए। मखदूम फकीह अली माहिमी बचपन से ही सूफी विचार रखते थे और उन्होंने रहस्यवाद तथा गैर रहस्यवाद के मिलेजुले सिद्धांत को आसान लफ्ज़ों में ढाल आम इंसान तक पहुंचाया। उनकी विद्वता व उदारता उनके ग्रंथों में सहज ही झलकती है। कोकण के नवैत परिवार से जुड़ा होने के नाते उन्हें 'कुतुब-ए-कोकण भी बुलाया गया। स्पेन के विश्व प्रसिद्ध सूफी संत मोइनुद्दीन इबने-ए-अरबी के शागिर्द रहे माहिमी गुजरात के अहमद शाह के शासनकाल में शहर के काजी बने। उनकी शोहरत दिन दूनी रात चौगुनी बढ़ती गई।
मखदूम अली माहिमी देश के पहले टिप्पणीकार बने, जिन्होंने पाक कुरआन को उर्दू व फारसी के सरल शब्दों में ढाला, जिसे दुनिया ने 'तफ्िसर-ए-रहमानी के नाम से नवाज़ा। उनके द्वारा लिखे ग्रंथ की पांडुलिपि की स्याही आज करीब सात सौ साल बाद भी उतनी ही चमकदार है, जो किसी अजूबे से कम नहीं! माहिमी ने उर्दू व अरबी भाषा में करीब बीस ग्रंथ लिखे, जिनमें अदालत-उत-तवहीद, मिरातुल हकीक तथा िफकाह मखदूमी विश्व विख्यात हैं। बाबा के चमत्कारों जुड़े तमाम किस्से दुनिया भर में मशहूर हैं। अरसे से दरगाह की िखदमत में लगे पीर मखदूम साहेब चॅरिटेबल ट्रस्ट के नूर परकार बताते हैं कि बाबा को बकरियों से बहुत प्यार था, एक बार जब बाबा कहीं बाहर गए थे, तो उनके घर एक बकरी का बच्चा अल्लाह को प्यारा हो गया, लौटने पर बाबा को पता चला, तो वे उस जगह पहुंचे, जहां बकरे की लाश पड़ी थी, बाबा ने आसमान में हाथ उठाकर दुआ की और बकरे से बोले उठ! िफर क्या था, बकरा उठ खड़ा हुआ, उस वक्त बाबा नौ साल के थे। ऐसे ही, एक जलसे के वक्त खाने के लिए हर शख्स ने कुछ न कुछ पकाया, फिर बाबा मछली खाकर हाथ धोने पहुंचे और जब उनके हाथ पर पानी डाला गया, तो हाथ में मौजूद मछली के कांटे जिन्दा मछली में तब्दील हो गए।
ऐसे तमाम किस्से है, जो हर खासो आम के लिए किसी अजूबे से कम नहीं।दरगाह के बारे में यह किस्सा भी प्रचलित है कि अगर किसी को भूत, प्रेत, जिन्न आदि ने घेर रखा है, तो यहां आगे के रास्ते मज़ार जाकर मत्था टेकने और पीछे के रास्ते बाहर निकले से बुरी आत्माओं से पीछा छूट जाता है। यहां तक कि पुलिस वालों की भी बाबा में असीम श्रद्धा है और आला अधिकारी बाबा के हाजिरी जरूर लगाता है। यहां तक कि दिसंबर के दूसरे हफ्ते में शुरू होने वाले उर्स में बाबा की पहली चादर माहिम पुलिस की ओर से चढ़ाई जाती है। इसके पीछे तर्क है कि अंग्रेजी शासनकाल में कोई पुलिसकर्मी मुज़रिम से तंग आकर बाबा से उसे पकड़वाने की मन्नत मांग बैठा और वह पूरी हो गई, तभी से यह परंपरा निकल पड़ी और तब से आज तक पुलिस वालों की तमाम मन्नतें बाबा ने पूरी की हैं। नूर साहब के मुताबिक 28 वें रोजा और 29 वें शब को बाबा के हाथों के लिखे कुरआन-ए-पाक की जियारत (आम आदमी के दर्शन के लिए) कराई जाती है, जिसकी स्याही व कागज अभी भी जस का तस चमकदार है।
-सर्वेश
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