बिहार रत्न और भोजपुरी कोकिला जैसे विशेषणों से विभूषित गायिका शारदा सिन्हा को हाल ही में संगीत क्षेत्र में अमूल्य योगदान के लिए पद्मभूषण सम्मान प्रदान किया गया। चालीस साल से संगीत साधना कर रहीं शारदा सिन्हा न केवल बिहार की सभी भाषाओं में गीत गा चुकी हैं, बल्कि नगपुरिया, अवधी और छत्तीसगढ़ी आदि भाषाओँ में भी अपनी मखमली आवाज का जादू बिखेर चुकी हैं। हिंदी सिनेमा के लिए उन्होंने कम गीत गाए मगर जो गाए वे सदाबहार रहे। राजश्री प्रोडक्शन की फिल्म 'मैंने प्यार किया' का 'कहे तोसे सजना..' गीत हो या फिर 'हम आपके है कौन' का विदाई गीत 'बाबुल जो तूने सिखाया'। कुछ साल पहले अनुराग कश्यप की फिल्म 'गैंग्स ऑफ वासेपुर' में भी उनकी आवाज 'तार बिजली से पतले हमारे पिया' में खूब सराही गई। उनके संगीत सफर को सहेजने की कोशिश करता में यह लेख...
'पनिया के जहाज से पलटनिया बनी अईह पिया...' हो या 'कांचे ही बांस के बहंगियां...' हो, या फिर 'कहे तोसे सजना तोहरी सजनिया...' जैसे तमाम गीत जिनकी मखमली आवाज में लोगों के जेहन में रचे-बसे हैं, वो हैं शारदा सिन्हा।
ऐसा बहुत कम होता है कि किसी व्यक्ति या कलाकार की पहचान उसकी कला से कुछ इस तरह से घुलमिल जाती है, कि दोनों की पहचान एक-दूसरे के बिना अधूरी होती है। शारदा सिन्हा ऐसी ही एक शख्स़ियत हैं, जिन्हें लोकगीतों से अलग नहीं किया जा सकता। शारदा जी कहती हैं कि उन्होंने कभी हिसाब नहीं लगाया कि वे कितने सालों से गा रहीं है, उन्हें सिर्फ इतना पता है कि उन्होंने संगीत के साथ-साथ जीना सीखा है। वे कहती हैं कि लोक संस्कारी गीतों को गांव देहात की चारदीवारी से निकालकर आम जन तक लोकप्रिय बनाना ही उनके चार दशक से भी अधिक लंबे कला-जीवन में प्रमुख ध्येय था। हालांकि, लोकगीतों की वर्तमान स्थिति को देखते हुए वे थोड़ा उदास नजर आती हैं, उनका कहना है, ‘लोकगीतों के लिए यह समय संक्रमण काल के समान है। आज लोग सस्ते और सहज उपलब्ध संगीत के चक्कर में फूहड़ गायन को पसंद करने लगे हैं, जो हमारे समाज के लिए बेहद घातक है। नई पीढ़ी को तो यह ज्ञान ही नहीं है कि हमारी संगीत परंपरा कितनी उच्च कोटि की रही है, इसलिए उन्हें अवगत कराना भी हमारा ही कर्तव्य है अन्यथा वे आज के बाजारू संगीत को ही अपना सब कुछ मानते रहेंगे।'
पिता का मिला सहयोग
शारदा सिन्हा का जन्म साल 1953 में बिहार के सुपौल के हुलास गांव में हुआ था। उनके पिता बिहार सरकार के शिक्षा विभाग में अधिकारी थे और उन्होंने उनमें गायकी के गुण देखने के बाद उसे सींचने का फैसला किया। पिता सुखदेव ठाकुर ने 55 साल पहले दूरदर्शिता दिखाते हुए न सिर्फ शारदा को पढ़ाया, बल्कि उन्हें बाकायदा नृत्य और संगीत की शिक्षा भी दी। घर पर ही एक शिक्षक आकर शारदा सिन्हा को शास्त्रीय संगीत की शिक्षा देने लगे।
मंच पर पहला कदम
छुटपन में पहली बार गांव की पूजा में शारदा सिन्हा ने सार्वजनिक रूप से स्टेज पर गाना गाया था। उस समय गांव के लोगों ने इस बात की निंदा की थी, लेकिन शारदा को तो गायकी की धुन थी और पिता ने कदम दर कदम उनका साथ निभाया। परिणामस्वरूप वे कुछ ही वर्षों में बिहार, झारखंड, उत्तर प्रदेश, छत्तीसगढ़ तथा मध्यप्रदेश के लोकगीतों का पर्याय बनकर उभरीं। वर्ष 1979 में एचएमवी कंपनी द्वारा दिए गए ‘वर्ष का सर्वोत्तम कलाकार’ पुरस्कार के बाद शारदा सिन्हा ने पीछे मुड़कर नहीँ देखा। इसके बाद 1987 में बिहार गौरव, 1988 में भोजपुरी कोकिला व बिहार रत्न, 1991 में लोक-शास्त्रीय सांगीतिक प्रयोग के लिए पद्मश्री पुरस्कार और अब पद्मभूषण सम्मान तक उनकी झोली में है।
आसान नहीँ थी राह
शिखर तक पहुंचने तक राह आसान नहीँ थी। उस समय किसी लड़की के लिए गाना-बजाना अच्छा नहीँ माना जाता था। ससुराल में शारदा सिन्हा को शुरुआत में सास की नाराजगी का सामना करना पड़ा। बकौल शारदा," 1971 में जब मेरे गाने की रिकॉर्डिंग एचएमवी में हुई, तो गांव में भी लाउडस्पीकर पर मेरा गाना बजने लगा। तब मेरी सासू मां से कुछ लोगों ने कहा कि आपकी बहू बहुत अच्छा गाती है। उसके बाद हालात थोड़ा बदला। फिर उनके बताए कई पुराने गीत मैंने अपनी तरह से गाए, जो काफी लोकप्रिय हुए। धीरे-धीरे वह स्वतः ही सहयोग करने लगीं।"
सीखना सतत् जारी है...
शारदा सिन्हा ने सुगम संगीत की हर विधा में गायन किया, इसमें गीत, भजन, गजल, सब शामिल हैं। लेकिन उन्हें लोक संगीत गाना काफी चुनौतीपूर्ण लगा और धीरे-धीरे वो इसमें विभिन्न प्रयोग करने लगीं। आज भी शारदा सिन्हा की आवाज काफी खनकदार है और कशिश से भरी है, जो किसी को बरबस आकर्षित कर लेती है। उनके अनुसार, ''लोगों को मेरी आवाज इसलिए भाती है, क्योंकि मैं जो भी गाना गाती हूं, उसमें पूरी तरह से डूब जाती हूं, उसमें जीने लगती हूं। साथ ही शास्त्रीय संगीत मेरे गायन में एक तरह का ठहराव देता है, जो लोगों को अच्छा लगता है।'' खास बात यह है कि गायकी की उंचाई पर पहुंचने के बाद भी शारदा सिन्हा खुद को आज भी शिष्या ही मानती हैं और सीखने का सफर निरंतर जारी है। वे कहती हैं, "बहुत कुछ छूट गया है। यह एक जन्म में पूरा होने वाला नहीँ है। संगीत तो एक साधना है। अभी भी बहुत से गानों पर काम करना है।"
-सोनी सिंह
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