श्री गंगालहरी
यदंतः खेलंतो बहुलतरसंतोषभिरता
न काका नाकाधीश्वरनगरसाकाङ्क्षमनसः ।
निवासाल्लोकनां जिनमरणशोकापहरणं
तदेत्ते तीरं श्रमशमनधीरं भवतु नः ॥ ९॥
न यत्साक्षाद्वेदैरपि गिलतभेदैरविसतं
न यस्मिं जीवानां सरित मनोवागवसरः ।
निराकारं नित्यं निजमहिमनिर्वासिततमो
विशुद्धं यक्तत्त्वं सुरतटिनि तत्त्वं न विषयः॥ १०॥
आज हम फिर से श्री 'जग्गन्नाथ मिश्र' कृत श्री गंगालहरी के दो श्लोकों को प्रकाशित कर रहें हैं।
- संपादक की कलम से
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