"कथाओं से भरे इस देश में...मैं भी एक कथा हूं"

केदारजी हाई स्कूल और कॉलेज-यूनिवर्सिटी की शिक्षा के लिए चकिया छोड़कर 1950 में संस्कृति-केंद्र बनारस आ गए और काशी की संस्कृति उनकी कविता में दृष्टिगोचर होती है। उनकी कविताओं में मृत्यु को लेकर एक विकल संवेदना सदैव व्याप्त रहती है। उन्होंने मनुष्य के ‘होने’ पर जितनी गहराई से सोचा-समझा और लिखा उतना ही उसके न होने पर लिखा।
उनका बनारस जितना जीवन का शहर है, उतना ही मृत्यु का भी.
यह शहर इसी तरह खुलता है
इसी तरह भरता
और खाली होता है यह शहर
इसी तरह रोज-रोज एक अनंत शव
ले जाते हैं कंधे
अंधेरी गली से
चमकती हुई गंगा की तरफ
इस शहर में धूल
बुनाई का गीत / केदारनाथ सिंह
उठो सोये हुए धागों
उठो
उठो कि दर्जी की मशीन चलने लगी है
उठो कि धोबी पहुँच गया घाट पर
उठो कि नंगधड़ंग बच्चे
जा रहे हैं स्कूल
उठो मेरी सुबह के धागो
और मेरी शाम के धागों उठो
उठो कि ताना कहीं फँस रहा है
उठो कि भरनी में पड़ गई गाँठ
उठो कि नाव के पाल में
कुछ सूत कम पड़ रहे हैं
उठो
झाड़न में
मोजो में
टाट में
दरियों में दबे हुए धागो उठो
उठो कि कहीं कुछ गलत हो गया है
उठो कि इस दुनिया का सारा कपड़ा
फिर से बुनना होगा
उठो मेरे टूटे हुए धागो
और मेरे उलझे हुए धागो उठो
उठो
कि बुनने का समय हो रहा हैरे-धीरे उड़ती है।
अंततः केदार जी चले गए, लेकिन उनकी कविताओँ में उठती गहरी टेर कौन छीन सकता है। उनकी भोजपुरी की अनुगूंजों से दीप्त हिंदी की आधुनिक चेतना का अनुभव हमेशा हमारे साथ रहेगा।