मध्यम पड़ती दीयों की रौशनी
दीपावली के दीयों की जगमगाहट पर चाइनीज लाइट्स की रंग-बिरंगी रौशनी हावी होती जा रही है। ऐसे में, दिवाली के कई महीनों पहले मिट्टी के दीये गढऩे से लेकर उसे खूबसूरत रंगों से सजाने में जुटे कुम्हार परिवार के सदस्यों का दिखना भी गए जमाने की बात बनता जा रहा है। हो भी क्यों न, कड़ी मेहनत के बाद भी इन कुम्हारों की कमाई इतनी नहीं हो पाती, जिससे पूरे परिवार का पेट पाला जा सके। एक तरफ हम भारतीयता की बात तो करते हैं, किंतु त्यौहारों और परंपराओं पर आधुनिकता का लबादा ओढ़ाते जाते हैं। इसी का असर है कि सदियों से इस देश की मिट्टी से रोशनी गढ़ते आ रहे कुम्हारों की रोजी-रोटी मेड इन चाइना की वजह से छीनती नजर आ रही है।
चाइनीज लाइट्स का बढ़ा चलन
अब वो जमाना लद गया है, जब कुम्हार के पास से आए मिट्टी के दीयों को धोकर उसमें रुई की बाती और तेल डालकर घर की बेटियां-बहुएं उन्हें एक कतार में सजाती थीं। फिर शाम को सभी दीये जगमग हो उठते थे। बीते कुछ समय से दीयों की जगह घरों में रंग-बिरंगी लाइट्स की लडिय़ा झूलती दिखाई देती हैं और इन लाइटों की रंगीन रौशनी में कहीं डूबकर दम तोड़ती भारतीय संस्कृति और परंपरा की झलक भी गाहे-बेगाहे झांक लेती है। भारतीय ग्रंथ धर्म सिंधु और मनुस्मृति के अनुसार मिट्टी के दीए जलाने से यमराज खुश होते हैं। यमराज के आह्वान करने के लिए मिट्टी के दीए से विधि विधान से पूजा की जाती है। साथ ही, दीपावली मनाने की शुरुआत भी तब से हुई जब भगवान राम के वनवास से लौटने पर पूरी अयोध्या में मिट्टी के दीए जलाए गए थे।
कुम्हारों की रोजी-रोटी पर आफत
चाइनीज लाइट्स की ओर लोगों के बढ़ते आकर्षण के कारण कुम्हारों की रोजी-रोटी पर भी आफत आ गई है। दीपावली के लिए मिट्टी के दीये, बर्तन और लक्ष्मी-गणेश की मूर्ति बनाने के पारंपरिक व्यवसाय से जुड़े कुम्हार परिवारों के कई सदस्य अब ये धंधा छोड़ चुके हैं। खासकर नई पीढ़ी तो बिल्कुल ही इस काम को आगे बढ़ाने की जिम्मेदारी नहीं लेना चाहती। इस व्यवसाय से जुड़े लोगों का कहना है कि कुछ सालों पहले तक आलम यह था कि दीपावली के कई महीने पहले दीये बनाने की तैयारी शुरू होने लगती थी, लेकिन अब इससे इतनी आमदनी नहीं हो पाती कि परिवार का गुजर-बसर किया जा सके। ऐसे में धंधा छोड़कर दूसरे व्यवसाय में जाना लोगों की मजबूरी बनता जा रहा है।
मूर्तियों का भी चलन घटा
दीपावली पर लक्ष्मी-गणेश की मिट्टी की मूर्तियां बनाने के व्यवसाय से पिछले कई पीढिय़ों से जुड़े कुम्हार परिवारों का कहना है कि यह काम अगली पीढ़ी तक जाएगा या नहीं यह कहना मुश्किल है। अब लोगों में मूर्तियों की खरीद का चलन कम हो रहा है। लोग मिट्टी की मूर्तियों की जगह फ्रेम वाली तस्वीरों और धातु की मूर्तियों का प्रयोग करने लगे हैं। इससे मूर्तियों की बिक्री प्रभावित हो रही है और मिट्टी की मूर्तियां बना रहे परिवारों की आमदनी घटती जा रही है। कुम्हारों का कहना है कि मूर्तियों को बेचकर परिवार के पालन-पोषण लायक आमदनी नहीं हो पाती, जिससे मिट्टी के दीये, बर्तन, मूर्ति बनाने वाले लोग अब इस काम से दूरी बना रहे हैं। पीढिय़ों से इस व्यवसाय से जुड़े परिवारों के कुछ सदस्य तो अब भी मिट्टी के काम में लगे हैं, लेकिन नई पीढ़ी रोजी-रोटी के लिए दूसरे रास्ते तलाश रही है। कुछ इलाकों में तो मिट्टी के सामान दूसरी जगहों से मंगाकर बेचा जाता है।
व्यवसायी-खरीदार दोनों पर महंगाई की मार
मिट्टी के दीयों की मांग दिन-ब-दिन कम होने की एक वजह बढ़ती महंगाई भी है। महंगाई का सामना खरीदार और व्यवसायी दोनों को करना पड़ रहा है। मिट्टी के एक दीये को जलाने में दो से तीन रुपए का खर्च आता है, जबकि इनकी अपेक्षा चाइनीज लाइट्स काफी सस्ती पड़ती हैं और इनका इस्तेमाल भी बार-बार किया जा सकता है। साथ ही दीयों में बार-बार तेल डालने आदि के झंझट से बचने के लिए भी लोगों में चाइनीज लाइटों का चलन बढ़ रहा है। दूसरी तरफ, मिट्टी के दीये, बर्तन बनाने वालों के लिए हर साल मिट्टी की कीमतों का बढऩा मुसीबत बनता जा रहा है। खासकर शहरी भागों के कुम्हारों के लिए कंकरीट में बदलते शहरों में मिट्टी तलाशना मुश्किल होता है। गांव में भी जिनके पास मिट्टी है वे बेचते नहीं हैं। अगर बेचते हैं, तो उसकी कीमत बहुत ज्यादा मांगी जाती है। कुम्हारों की मानें तो पिछली दीपावली पर चिकनी मिट्टी की एक ट्राली की कीमत
1800 से
2000 रुपए थी, तो बार ट्राली का भाव
3000 रुपए से
3200 रुपए तक पहुंच गया है।
सरकारी मदद की कमी
रोजी-रोटी के लिए एकमात्र मिट्टी के साधनों पर निर्भर कुम्हारों की कोई पूछ-परख नहीं है। सरकार भी इनके पारंपरिक व्यवसाय को बचाने के लिए कोई खास मदद मुहैया नहीं करा रही है, जिससे इनकी रोजी-रोटी पर संकट पैदा हो गया है। कुछ कुम्हारों को सरकार द्वारा मदद के नाम पर बिजली से चलने वाली उपकरण (चाक) जरूर दिए जा रहे हैं, लेकिन सच्चाई यह है कि सिर्फ कुछ पढ़े-लिखे लोग ही सरकारी योजनाओं का फायदा उठा पाते हैं।
विदेश चली देशी दिवाली
देश के लोगों में भले ही मिट्टी की चीजों का चलन घट रहा है, लेकिन जर्मनी, फ्रांस, मलेशिया, इंग्लैंड आदि देशों में इनकी खासी धूम है। दीपावली नजदीक आते ही इन देशों से मिट्टी के बने दीपक, झूमर, गैस सिलेंडर वाले गुल्लक, श्रीगणेश और लक्ष्मी के मूर्तियों के आर्डर मिलने शुरू हो जाते हैं।
हालांकि, दीयों में दीपावली की जो चमक है, उसकी जगह कभी चाइनीज लडिय़ां नहीं ले सकतीं। तभी तो दीयों की ओर लोगों को फिर से आकर्षित करने के लिए कई निजी और सरकारी संस्थाएं प्रयासरत हैं।
- सोनी सिंह