"मइया सुत्तल हइन" - Kashi Patrika

"मइया सुत्तल हइन"






यह कोई जुमला नहीं, बल्कि ठेठ बनारसी वाक्य है जो हमारे रोम-रोम में बसी मां गंगा के प्रति अगाध श्रद्धा दर्शाता है। 

विरले ही कोई बनारसी होगा, जो अपनी काशी नगरी या गंगा मइया से आसक्त न हो। क्योंकि, यही बनारसियों का कल्चर है, जो पीढ़ी दर पीढ़ी हममें समाहित हो हमारे जींस का हिस्सा बन गया है। यहां मद में चूर व्यक्ति भी अपने महादेव और गंगा मइया को नहीं भूलता। यही वजह है कि दुनियाभर का पाप धोतीं गंगा मइया, तमाम गंदगी के बावजूद बनारसियों के लिए उतनी ही निर्मल हैं जितनी भगीरथ के लिए रही होंगी। 

बात उन दिनों की है, जब "गंगा सफाई अभियान" जोर पकड़े हुए था, यानि साल 2003। शहर में ही एक मित्र के यहां शादी थी। हमने भी अखबारी काम-काज निबटाया और पूर्व निर्धारित कार्यक्रम के तहत निकल पड़े दोस्तों संग रतजगा करने। 
रात के करीब एक बज रहे होंगे, शादी में जाना महज औपचरिकता रह गई थी। खैर, मित्र-मंडली जुटी। उनमें कुछ व्यवसाई थे, कुछ नौकरी-पेशा और कुछ हम जैसे अनपढ़ों के पैरोकार। लेकिन वहां सब सिर्फ मित्र थे, न कोई अमीर-गरीब, न पढ़ालिखा या अनपढ़ और न ही कोई पद-प्रतिष्ठा वाला। ध्यान, ज्ञान, बौद्धिकता की बातें तो मानो हमारे बीच घृणित थी। 
शादी समारोह में पहुंचते ही न किसी ने वर-वधु के बारे में जानना चाहा, न मित्र का हाल-चाल। सामने पड़ते ही पहला सवाल- "का बे कुछ जुगाड़ हव का?" सामने से भी उसी अंदाज में जवाब- "नाही यार गुरु, देखते हउआ घरे में बियाह पड़ल हव। कहीं कउनो लफड़ा हो गइल, त रिस्तेदारी में भारी पड़ जाई"। अब आया सर्वबौद्धिक खांटी बनारसी प्रतिउत्तर, "भक भो.. के, लगले हमई के सिखावे। चल निकलवाव कुछ, तबे बात बनी"। ..सेकेंडों की खामोशी, फिर बाकी सभी हंस पड़े। 
इसके बाद सामने वाले ने किसी लड़के को बुलाकर कुछ काना-फूसी की, और कुछ देर बाद आकर बोला- "यार गुरु! ज्यादा त नाही, एक अद्धा क जुगाड़ भइल हव, एही में तू लोग काम चला ल"। इधर से नाक-भौं सिकोड़ अपनापन भरा उलाहना, "चल तहूं का याद करबे, ली आव"। फिर, आपस में शुरू हुआ, "के-के लेई" और नजरें एक-दूसरे की ओर प्रश्नवाचक! उनमें से एक मुझसे मुखातिब हो, "तू त खाली पंडिताई बतियाबा?"। अनायास मेरे मुंह से निकला, "हां यार, आज मंगर रहल, सबेरे से अइसही हई। तू लोगन के साथे चखना भी न ले पाइब"। 
..सभी मेरी बेबसी पर हंस पड़े, "देख ला भइया, ई अखबारे में लिखके दुनिया बदलिहें"! मैंने भी अपनी खीझ निकाली, "तोन्हने त यार पिछहीं पड़ जाले, जइसे ई (मेरे बगल वाला) बनारस क विश्वप्रसिद्ध मालपुआ बेचलन, अउरी तू (सामने वाले को) जइसे पूर्वांचल तोहरे दम पर जियत-खात हव"। तपाक से एक और प्रतिउत्तर, "दू जनी अउरु त हउअन, अखबार निकाल के आइल हउअन जवाहिर बने"। और सभी एकसाथ खिलखिला पड़े। 
इस बीच सभी को यथोचित मिठाई-पानी मिल चुका था। अब कोई टोकता, इससे पहले ही मेजबान एक थैले में कुछ सामग्री लाया और बोला- "गुरु इहां सादी-बियाह क माहौल हव, तू लोग घाटे (गंगा घाट) की ओर चल जा, बखत निकाल के हमउ आइब"। फिर क्या था, भाई लोगों की आंखें चमक उठीं और झटपट चहलकदमी करते घाट की ओर जाने वाली गली पकड़ लिए। 

रात करीब दो बजे चुके थे, अब वक्त आ गया था क्लाइमेक्स का। पांच मिनट का कदमताल, और हम सभी गंगा घाट की सीढ़ियां उतर रहे थे। गंगाजी से 4-6 सीढ़ी ऊपर एक चबूतरे पर सब जम गए। जिसे सबसे ज्यादा जल्दबाजी थी, उसने थैला खोला और मिनटों में साथ लाए अद्धे को 4 लोगों ने निबटाया। इसके बाद हल्की सुरसुराहट में एक बोला, "गुरु, मजा नाही आयल, अउरी चाही"। फिर, दो लोग गए। कहीं कोई दुकान खुलवाई, एक और अद्धा ले आए। इसके बाद बोतल खोलते ही एक लगभग चिल्लाया, "अबे पानी त हइए नाही हव"। बाकी भी चौंके, "अब का होई"। किसी ने कहा, "गंगाजी हइन न"। इतना सुनते ही सब भड़क गए, "पगला गइल हउए का, देखत नाही हउए 'मइया सुत्तल हइन"। दूसरा बोला, "एक त मइया के कपारे पर पाप करत हउआ। उ सुत्तल हइन, तू बगले में लगावत-बझावत हउवा, ऊपर से मइया से पानी चाही। लाज नाही आवत हव।" 
मैं हतप्रभ उनकी बातें सुनता रहा, फिर बही ज्ञान गंगा और सभी बताने लगे काशी और गंगा का महात्म्य। तमाम कही-अनकही और बनारसी तार्किकता में छनी बातों का दौर करीब दो घण्टे चला। 
मंदिरों के घण्टनाद के साथ "हर-हर महादेव, जय भोलेनाथ की, जय हो गंगा मइया की" आदि प्रतिध्वनियों ने हमें चैतन्य किया। हममें से ही किसी ने कहा, "चला यार गुरु, चलल जाय ! बनारस जाग गइल हव।" 
वक्त के पहिए की रफ्तार में यह बातें 15 साल पीछे जा चुकीं हैं, लेकिन वह वाक्य आज भी यूं ही ताजा है- "मइया सुत्तल हइन"। 
-कृष्णस्वरूप

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