काठ के खिलौनों का मुस्कुराता संसार - Kashi Patrika

काठ के खिलौनों का मुस्कुराता संसार

छोटे-छोटे खिलौनों में हरा, नीला, लाल...करीने से भरते रंग, पसीने से लथपथ होते हुए भी आंखों और हाथ में गजब की चुस्ती-मुस्तैदी ताकि कृति में कोई कमी न रह जाए। जी हां! हम बात कर रहे हैं, बनारस के लकड़ी के खिलौनों की। बनारसी साड़ी, पान, घाट-मंदिर की तरह ही यहां के बने काठ के खिलौने भी काशी की पहचान हैं। इन खिलौनों की बनावट से लेकर बाजार तक को खंगालने की कोशिश करती यह रिपोर्ट


अब लगता है कि बात गुजरे जमाने की हो गई है, क्योंकि आजकल के बच्चों के हाथ चाइनीज टॉयज या गैजेट्स से चिपके रहते हैं। बदलते वक्त में लकड़ी के खिलौनों के खरीदार तो कम हुए ही हैं, सरकारी नियमों ने भी कलाकारों को हतास करने में कसर नहीँ छोड़ा है। पर विदेशियों की बढ़ती दिलचस्पी ने फिर से काष्ठ कलाकारों में उमंग भर दिया है। विश्व पटल पर रखने के लिए लीक से हटकर खिलौने बनाए जा रहे हैं। खिलौने बनाने की बजाय उनके रंग-रूप में काफी बदलाव किया है। यही नहीं, अब यह व्यवसाय खिलौनों तक ही सीमित नहीं रहा। लकड़ी से घर की साज-सज्जा के खूबसूरत उत्पाद भी तैयार किए जा रहे हैं। यही वजह है कि अब बनारस में बने लकड़ी के खिलौनों और इंटीरियर उत्पाद विदेशी ग्राहकों को भी लुभा रहे हैं। लकड़ी से तैयार मूर्तियां भी खासी पसंद की जा रही हैं। गणेश, शिव, पंचमुखी हनुमान, विश्वकर्मा की आकर्षक मूर्तियों के अलावा भगवान बुद्ध के शीर्ष की भी काफी मांग है।

राम राज्य से पुरानी परंपरा
कहते हैं कि बनारस की काष्ठ-कला आधुनिक या केवल दो-चार सौ वर्ष पुरानी परम्परा नहीं है, बल्कि यह तो 'राम राज्य' से भी पहले से चली आ रही है। जब राम चारों भाई बच्चे थे, तो भी वे इन्हीं लकड़ी के बने खिलौने से खेलते थे। स्थानीय कलाकार की मानें तो इस धंधे को इनके पूर्वज बहुत ही प्राचीन काल से करते आ रहे हैं। शुरुआत में केवल बच्चों के खिलौने तथा सिन्दूरदान बनाए जाते थे, लेकिन आजकल बहुत ही तरह की चीजें बनने लगी हैं।

बाजार का विस्तार
लकड़ी से बने खिलौनों और सिंदूरदान की बिक्री पहले स्थानीय बाजार खासकर विश्वनाथ गली एवं गंगा के विभिन्न घाटों पर पर होती थी। ज्यादातार तीर्थयात्री ही इनके खरीददार हुआ करते थे। अब कलकार अपने सामानब भारत के सभी हिस्सों एवं प्रमुख शहरों में भेजते हैं, जहां इनकी अच्छीखासी मांग तथा खपत है। इतना ही नहीं, विदेशों में भी काठ के बने सामानों को भेजा जा रहा है।

गलियों की कला
बनारस का कश्मीरीगंज लकड़ी के खिलौने बनाने का प्रमुख केंद्र माना जाता है। लकड़ी के खिलौने बनाने वाली खराद की मशीनें नवापुरा, जगतगंज आदि मोहल्लों में भी चलती थीं, जिनमें कई अब बंद हो चुकी हैं। कोरैया की लकड़ी खासतौर पर खिलौने में प्रयुक्त होती थी। इस लकड़ी के काटने पर प्रतिबंध लगा, तो कारीगरों ने यूकेलिप्टस की लकड़ी का सहारा लिया है। इस व्यवसाय में लगभग पूरा परिवार ही जूटा रहता है। कलाकार त्योहारों के दिन में 30 मूर्तियां तक एक दिन में तैयार कर लेते हैं।


उपयोग में आने वाले विभिन्न रंग
पहले कलाकार लाल, हरा, काला, तथा नीले एवं मिलेजुले रंगो का प्रयोग करते थे। यह परम्परा बहुत दिनों तक यथावत चलता रही। बल्कि बहुत से लोग तो आज भी इन्हीं रंगो का प्रयोग अपने द्वारा बनाए गए उपकरणों/खिलौनों को रंगने के लिए करते हैं। बदलते वक्त में बाजार में उपलब्ध अन्य रंगों का भी प्रयोग हो रहा है। उपकरणों को रंगने के बाद ऊपर से विभिन्न चित्रों से भी सुसज्जित किया जाता है। सुसज्जित करने का काम प्रायः महिलायें करती हैं। बहुत से रंगों के प्रयोग का एक कारण यहां के काष्ठ कला से निर्मित कला तत्व का निर्यात भी है।

बनने वाली कलाकृतियां
पहले बनारस के काष्ठ कलाकार मुख्य रुप से बच्चों के खिलौने तथा सिन्दूरदान बनाते थे। भगवान की मूर्तियों का भी प्रचलन था, जो आज भी जारी है। बच्चों के खिलौनों में लट्टटू, जान्ता, ग्लास, तथा थाली, फल जाने कितनी वस्तुएं बनाई जाती हैं।


कच्चे माल की प्राप्ति
काशी के काष्ठ कलाकार अपने अधिकांश वस्तुओं एवं खिलौनों का निर्माण एक प्रकार की जंगली लकड़ी जिसे 'गौरेया' कहा जाता है, से बनाते हैं। गौरेया लकड़ी न तो बहुत महंगी और न ही किसी ख़ास प्रयोजन की लकड़ी है। खिलौनों के अलावा लोग इस लकड़ी का प्रयोग केवल ईंधन (भोजन बनाने) की लकड़ी के रुप में करते हैं। गौरेया लकड़ी वाराणसी में नहीं होती, बल्कि इसे बिहार के पलामू एवं अन्य जगहों के जंगलों तथा उत्तर प्रदेश के मिर्जापुर आदि जगहों से मंगाया जाता है। मंहगे खिलौने तथा वैसे काष्ठकला जिन्हें बाहर ख़ासकर विदेशों में निर्यात किया जाता है, सामान्यत गौरेया की लकड़ी से ही बनाए जाते हैं। जो छोटे स्तर के कलाकार हैं, वे लकड़ी खुदरे के भाव से ख़रीदते हैं, जबकि बड़े पूंजी वाले सालभर के लिए लकड़ी खरीदकर जमा कर लेते हैं। कच्चे माल अथवा लकड़ी को रखने के तरीके को ये अपनी भाषा मे 'टाल' कहते है। फिर अवश्यकतानुसार छोटे-छोटे टुकड़ों में किया जाता है और फिर उन टुकड़ों से 'काष्ठकला' के निर्माण की प्रक्रिया प्रारंभ होती है।


निर्माण की मशक्कत
सर्वप्रथम लकड़ी को इच्छित आकार में काट लिया जाता है। इसके बाद उन्हें खरादकर विभिन्न वस्तुओं का निर्माण किया जाता है। काष्ठ-कला के निर्माण के तकनीक के आधार पर बनारस के काष्ठ-कलाकारों को वर्गों में विभक्त किया जा सकता है।
वे जो परम्परागत रुप से हाथ से 'काष्ठ-कला' का निर्माण करते हैं। वे 'काष्ठ-कलाकार' जो बिजली के मोटर से चलने वाले खराद मशीन की सहायता से 'काष्ठ-कला' का निर्माण करते हैं। इसके अलावा कुछ लोग लकड़ी के छोटे-छोटे खिलौने, देवी-देवताओं की मूर्तियां कारीगारी के नुमाइशी, सजावट के समान इत्यादि भी बनाते हैं। इनके परिवार के लोग लकड़ी के सांचे भी बनाते हैं जिससे ढलाई होती है। वाराणसी में जबसे ढालुआ धातु के शोपीस, मेडल, तमगे आदि बनने लगे हैं, तबसे ये ढाली जाने वाली वस्तुओं के सांचे भी बनाने लगे हैं। वैसे अधिकांश 'काष्ठ-कला' ख़ासकर खिलौने, बीड्स (मनके), इत्यादि आजकल खराद मशीन पर बनाया जाता है। खराद मशीन वाले अधिकांश लोग 'खोजवा' के 'कश्मीरीगंज' में बसे हैं। जो 'काष्ठ-कलाकार' खराद पर काम करते हैं, उन्हें 'खरादी' कहा जाता है। बिजली आने के पहले मशीन हाथ से चलाई जाती थी। मशीन में रस्सी लपेटकर एक व्यक्ति बारी-बारी से खींचता था, जबकि दूसरा व्यक्ति वस्तुओं को खरादता था।


संगठन और उसका स्वरूप
बनारस के 'काष्ठ-कलाकारों' का अपना एक पंजीकृत संगठन है। जिसका निश्चित स्वरुप है तथा इस कला में संलग्न सभी लोग इस संगठन के सदस्य है। अगर कोई व्यक्ति 'काष्ठ-कला' को सीखना चाहता है, तो सीखने के पूर्व उसे संगठन के पदाधिकारियों से अनुमति लेनी पड़ती है। इसी तरह से काष्ठ कला के व्यापारियों का भी एक अलग संगठन है, जो कलाकृतियों को भारत के विभिन्न जगहों तथा विदेशों में भेजते हैं। काष्ठ व्यापारियों का संगठन भी इस बात का ध्यान रखता है कि खरीद के कीमत, तथा समानों की गुणवत्ता में समानता होनी चाहिए।

खासी मशक्कत से तैयार ये खिलौने विदेशों में तो पूछे जा रहे हैं, लेकिन दुर्भाग्य कि हमारे देश के बच्चे इन प्रदूषण रहित खिलौनों से लगभग दूर ही होते जा रहे हैं। उनके हाथों में प्लास्टिक की पिस्टल, कार, पिचकारी, स्ट्रेस बूस्टर जैसे भांति-भांति के खिलौने या टेक्नोलॉजी का झुनझुना थमाया जा रहा है। काश! हम भी अपने बच्चों को भारतीय परंपरागत खिलौनों से परिचित कराते, जो सेहत के लिए भी बढ़िया है, तो हमारे काष्ठ कलाकारों का जोश दोगुना हो जाता।

-सोनी सिंह

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