"कड़े भाग वानुष मन पावा" - Kashi Patrika

"कड़े भाग वानुष मन पावा"



जी हां, आप सब सही सोच रहे हैं। कहावत नहीं बदली, बल्कि कहावत के मायने बदल गए हैं। कहावत तो वहीं है, "बड़े भाग मानुष तन पावा"। 
अगर, कुछ बदला है तो वह है परिप्रेक्ष्य। आडंबरों की ख्याति इतनी प्रबल है कि हमने तन तो मानुष का पा लिया, मन भीतर से वानुष ही रहा। उतना ही उद्दंड, उतना ही शरारती, उतना ही उपद्रवी। 

चलिए, बात आगे बढ़ाते हैं। पिछले दिनों आपके इस अनपढ़ की लेखनी कुछ नया खुरचने को कुलबुलाने लगी, तो निकल पड़े नायक की तलाश में। तलाश शुरू भी नहीं हुई कि नायक साक्षात हो गया। भाषण कला में निपुण, वाकपटु और आंखों में कुशाग्र चालाकी लिए हमारे नायक ने भरपूर आत्ममुग्धता लिए हमसे सवाल दागा, "का गुरु.. कहां हउआ आजकल?" 
क्षुद्र बुद्धि से हमने भी उन्हें टटोलते हुए बोला, "एही ठीयन हई, कहां जाइब!" 
अब गुरुआ को पूरा ज्ञान उड़ेलने का जैसे मौका मिल गया, "इंहा रहबा, त अइसहीं सड़ जइबा ई पगलन के चक्कर में। तोहसे तबहिएं कहले रहली निकल ला, कुछ करे के हव त"। 
हमारी उत्सुकता जगी और पूछा, "आपन सुनावा?" 
जैसे सामने वाले को जैसे इसी का इंतजार था, तुरंत बनारसी से हिंग्लिश पर आ गया और यूं शुरू हुआ मानो मैं आखिरी व्यक्ति हूं उसे सुनने वाला- "गुरु.. मैं आजकल मल्टीस्पेशिएलिटी क्लासेज चलता हूं, ध्यान-योग पर लिख-पढ़ भी रहा हूं। लोगों को पॉजिटिव एनर्जी के बारे में बताता हूं, और उन्हें समझाता हूं कि कैसे लाइफ को सक्सेस की ओर ले जाया जा सकता है।" 
मैंने थोड़ा और कुरेदा, "कइसे करै ला ई सब?" 
भरपूर गर्व से फूल गुरुआ मुझे हिकारत की नजर से देखा और जज्बाती लहजे में बघारना शुरू किया, "यार! ये सब समझने के लिए वक्त देना होगा। खुद को भी मेरे पास आकर भी, कोई नहीं मैं तुम्हें सिखाऊंगा। सबसे पहले तो खुद को पहचानो, तुम वो नहीं, जो दिख रहे हो। तुम तो वो हो, जो दुनिया तुम्हें देखना चाहती है। सब भूल जाओ, अपने सामने एक दीवार पर एक सफेद या काला गोला बनाओ, उसे एकटक निहारो, फिर तुम्हें लगेगा कि तुम तो दुनिया से परे हो। एक के बाद एक दुनिया बदलती जाएगी।" 

मैं कबूतर की तरह बटर-बटर देखता रहा और सामने वाले का ज्ञान मुझे कुढ़ाता रहा। अंतर्मन विचारने लगा, "यार नाहक जिंदगी में इतनी मशक्कत बटोरीं, दुनिया-जहान के धक्के खाए। सामने वाला गुरुआ तो घंटाल निकला, जिसे होमगर्डवा कहकर मजाक उड़ाते थे, वहीं आज क्या से क्या हो गया।" अगले ही पल यह भी भान हुआ कि, "ये बातें सकारात्मक होने की कर रहा है और सामने लगातार नकारात्मकता उड़ेल रहा है। क्या यही ज्ञान है, जिसके लिए लोग इसके पास आते होंगे? क्या सचमुच यह ज्ञानी है, क्योंकि ज्ञानी तो कभी विचारों से इतने ऊश्रृंखल नहीं हो सकते!" 
अभी मन भीतर ही भीतर उधेड़बुन और नापतौल में व्यस्त था कि गुरुआ मुझे लगभग झिंझोड़ते हुए बोला, "चलो, ये सब तुम्हारी समझ में नहीं आएगा, मैं भी कहां तुम जैसे बज्र में समय खपा रहा हुं, तुम क्या जानो मेरे आज्ञाचक्र की अवस्था को? चलता हूं, कभी आना, किसी शिष्य को लगा दूंगा तुम्हारे लिए"। 

मैं वहीं जड़वत विचारों में खो गया, "अगर गुरुआ का सचमुच आज्ञाचक्र जाग गया है, तो यह इतना शब्द पिपासु क्यों है, इतना विचारोद्दण्ड क्यों है?" 
कहते हैं, "काशी के कण-कण में महादेव हैं और कदम-कदम पर ज्ञानी" और यह कहावत भी पल भर में ही चरितार्थ हो गई। एक पकी दाढ़ी वाले बाबा ने कहा, "चला गुरु.. रस्ता दा, एक घंटा से तू-लोगन क कचर-कचर सुनके कपार पिराए लगल। चली भांग-बूटी छानी, त माहौल हल्का होए"। 

अभी मैं उन बाबा से मुखातिब हो परिचय पूछ पाता कि उन्होंने मुझे अपनी बुदबुदाहट में गुरुआ के लिए शीर्षक सुझाया और बनारसियों की भीड़ में ओझल हो गए। जाते-जाते उनके आखिरी वाक्य जो मेरे कान सुन सके, वह थे- "कड़े भाग वानुष मन पावा"। 


■ कृष्णस्वरूप

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