आज काशी का विकास तेज गति से हो रहा है और रोज यहाँ कुछ न कुछ नया समाता जा रहा है। समाहित करने के अपनी इसी कला के लिए काशी विश्व विख्यात है। आज जब हम मध्युगीन काशी के इतिहास को देखते है तो पाते है कि यहाँ के सामाजिक आर्थिक ताने-बाने में एक कमी है जो आज भी विध्यमान है उसे हम सामाजिक विफलता का नाम दे सकते है। ये काशी के विषय में जितना चरितार्थ नहीं होता उतना यहाँ अगल- बगल बेस जिलों के रूप में दृष्टिगोचर होता है।
इडा पिङ्गला ताना भरनी,
सुखमन तार से बीनी चदरिया....
आठ कँवल दल चरखा डोलै,
पाँच तत्त्व गुन तीनी चदरिया....
साँ को सियत मास दस लागे,
ठोंक ठोंक कै बीनी चदरिया.....
सो चादर सुर नर मुनि ओढी,
ओढि कै मैली कीनी चदरिया....
दास कबीर जतन करि ओढी,
ज्यों कीं त्यों धर दीनी चदरिया।
हमें देखना होगा कि जिस तेज गति से काशी आज आपने परिवेश को बदल रही उसी गति से अगल बगल बसे जिलों को भी बदलना होगा वार्ना ये विकास बेमानी साबित होगा। इसका मुख्य कारण है यहां बेस जिलों का काशी से पारस्परिक सम्बन्ध जो नोर्बाध है और सही मायने में काशी को अन्नंत काल से परिपोषित करता हुआ स्वयं इसकी धरा का अंग बन गया है।
इन जिलों के इस पारस्परिक सामाजिक सम्बन्धो को ध्यान में रखते हुए हमें जल्द ही सामाजिक बदलाव के और बढ़ना होगा जिसका मुख्य अंग आर्थिक गलियारे से होकर गुजरता है। आज जब हम देखते है कि काशी एक वैश्विक विरासत की ऒर बढ़ रही है तो इसको पोषित करने वाले जिलों को हम किसी भी हालत में भूल नहीं सकते नहीं तो इसका सामाजिक ताना- बाना टूट जायेगा और काशी पुनः केवल एक आगंतुकों का केंद्र बनकर रह जाएगी।
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