यदि तुम अप्रसन्न हो तो इसका सरल सा अर्थ यह है कि तुम अप्रसन्न होने की तरकीब सीख गए हो। और कुछ नहीं।
अप्रसन्नता तुम्हारे मन के सोचने के ढंग पर निर्भर करती है। यहां ऐसे लोग हैं जो हर स्थिति में अप्रसन्न होते हैं। उनके मन में एक तरह की धारणा है जिससे वे हर चीज को अप्रसन्नता में बदल देते हैं। यदि तुम उन्हें गुलाब की सुंदरता के बारे में कहो, वे तत्काल कांटों की गिनती शुरू कर देंगे। यदि उन्हें तुम कहो, "कितनी सुंदर सुबह है, कितना उजला दिन है।" वे कहेंगे, "दो अंधेरी रातों के बीच एक दिन, तो इतनी बड़ी बात क्यों बना रहे हो?"
इसी बात को सकारात्मक ढंग से भी देखा जा सकता है; तब अचानक हर रात दो दिनों से घिर जाती है। और अचानक चमत्कार होता है कि गुलाब संभव होता है। इतने सारे कांटों के बीच इतना नाजुक फूल संभव हुआ।
सब इस बात पर निर्भर करता है कि किस तरह के मन का ढांचा तुम लिए हुए हो। लाखों लोग सूली लिए घूम रहे हैं। स्वाभाविक ही, निश्चित रूप से, वे बोझ से दबे हैं; उनका जीवन बस घिसटना मात्र है। उनका ढांचा ऐसा है कि हर चीज तत्काल नकारात्मक की तरफ चली जाती है। यह नकारात्मक को बहुत बड़ा कर देता है। जीवन के प्रति यह रुग्ण, विक्षिप्त, रवैया है। लेकिन वे सोचते चले जाते हैं कि "हम क्या कर सकते हैं? दुनिया ऐसी ही है।"
नहीं, दुनिया ऐसी नहीं है। दुनिया पूरी तरह से निष्पक्ष है। इसमें कांटे हैं, इसमें गुलाब के फूल हैं, इसमें राते हैं, इसमें दिन भी हैं। दुनिया पूरी तरह से निष्पक्ष है, संतुलित--इसमें सब कुछ है। अब यह तुम्हारे ऊपर निर्भर करता है कि तुम क्या चुनते हो। इसी तरह से लोग इसी पृथ्वी पर नर्क और स्वर्ग दोनों ही पैदा करते हैं।
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