- Kashi Patrika

श्री गंगालहरी 


भवत्या हि व्रात्याधमपतितपाखण्डपरिषत  
परित्राणस्नेहः  श्लथयितुमशक्यः खलु यथा । 
ममाप्येवं  प्रेमा दुरितनिवहेष्वम्ब जगति   
स्वभावोऽयं सर्वैरपि खलु यतो दुष्परिहरः ॥ ३७॥



प्रदोषा षांतरनृत्य त्पुरमथनलीलोद्धृतजटा-
तटाभोगप्रेङ्खल्लहरिभुजसन्तानविधुतिः ।
बिलक्रोडक्रीडज्जलडमरुटङ्कारसुभग-  
स्तिरोधक्तां तापं त्रिदशतटिनीताण्डवविधिः॥ ३८॥

आज हम श्री गंगालहरी के दो और श्लोकों को प्रकाशित कर रहें हैं। 

- संपादक की कलम से 


No comments:

Post a Comment