श्री गंगालहरी
श्ववृत्तिव्यासङ्गो नियतमथ मिथ्याप्रलपनं
कुतर्केश्वभ्यासः सततपरपैशुन्यमननमं।
अपि श्रावं श्रावं मम तू पुनरेवं गुणगणा-
नृते त्वत्को नाम क्षणमपि निरीक्षेत वदनं॥ ३१॥
विशालाभ्यामाभ्यां किमिह नयनाभ्यां खलु फलं
न याभ्यामालीढा परमरमणीया तव तनुः ।
अयं हि न्यक्कारो जननि मनुजस्य श्रवणयो-
र्ययोर्नान्तर्यातस्तव लहरिलीलाकलकलः ॥ ३२॥
काशी पत्रिका के द्वारा आज श्री गंगालहरी के दो और श्लोकों को प्रकाशित किया जा रहा है।
- संपादक की कलम से



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