कारन कवन नाथ नहिं आयउ?। जानि कुटिल किधौं मोहि बिसरायउ??।।
"अहह" ! धन्य लछिमन बड़भागी। राम पदारबिंदु अनुरागी।।
कपटी कुटिल मोहि प्रभु चीन्हा। ताते नाथ संग नहिं लीन्हा।।
(उत्तरकांड :10)
भैया भरतजी मन में विचार करते हैं कि वनवास के चौदह वर्ष की अवधि कल समाप्त हो रही है और मेरे स्वामी श्रीराम जी न आए और न कोई संदेश ही भेजे अतः अवश्य कुछ कारण है।
हां, इसमें कोई संदेह नहीं कि वे अब तक रावण का संहार कर दिए होंगे। अतः भरतजी को श्रीरामजी के सामर्थ्य पर संदेह नहीं है।
उन्हें भले ही हनुमानजी के माध्यम से लक्ष्मण मूर्छा तक की ही समाचार मिली है, लेकिन वे श्रीरामजी द्वारा लंका में रावण पर विजय प्राप्त करने पर निश्चिंत हैं।
उनके आगमन की कोई सूचना नहीं है, अतः लगता है कि मुझे सत्ता लोभी समझकर, कपटी, कुटिल समझकर मेरे स्वामी ने मेरा त्याग कर दिया है। मैं अपने स्वामी को जानता हूं कि वे जब कैकेई को भी कुछ नहीं कहते, तो मुझ पापी को भी कुछ नहीं कहेंगे, किन्तु लगता है कि वे मुझे भूल गए।
मैंने चित्रकूट जाकर उन्हें अयोध्या के राज्यसिंहासन उन्हें सौंपना चाहा, तो उन्होंने मर्यादा की दुहाई देकर अस्वीकार कर दिया।
फिर मैं लक्ष्मण को वापस कर स्वयं उनके साथ वनवास में रहने की इच्छा की, तो उन्होंने उसे भी स्वीकार नहीं किया।
अहह!! मेरे प्रेम में दोष था अतः मैं स्वामी सेवकाई के लिए अयोग्य हुआ परंतु मेरा लक्ष्मण!!
भरतजी को लक्ष्मणजी के सौभाग्य स्मरण होते ही न उनके मन में जलन है और न ईर्ष्या है, क्योंकि भक्ति में ईर्ष्या का कोई स्थान नहीं है। भरत भावना है कि भैया लक्ष्मण! तुमने अपने लक्ष्य की प्राप्ति कर ली, अतः तुम्हें धन्यवाद!!!
तुम्हारी साधना निर्दोष थी, अतः तुम सफल हुए। तुम सरल थे इसलिए सफल हुए।
अहह! "धन्य लछिमन बड़भागी"!!
भैया लक्ष्मण! तुम धन्य हो, तुम बड़े भाग्यवान हो भैया!!
इस चराचर जगत में तुम्हारे समान बड़भागी कोई और नहीं है।
मैं जिन चरण कमलों के दर्शन से चौदह वर्षों से वंचित हूं , तुम सतत उन पावन श्रीराम चरण कमलों में अनुराग बनाए हुए हो।
"अहह! धन्य लछिमन बड़भागी"!!
मेरे लखन भैया! तुमने सर्वस्व त्यागकर श्रीराम चरण कमलों में स्नेह को प्रधानता दिया, अतः तुम बड़भागी हो।
तुमने अपने लक्ष्य को प्राप्त कर लिया, क्योंकि तुम एकाग्रचित्त थे और मैं धर्म और प्रेम के भंवर में फंस कर रह गया। मैं पिता वचन रुपी धर्म और श्रीराम चरण कमल स्नेह के बीच..
धरम सनेह उभय मति घेरी।
"भई गति सांप छुछूंदरि केरी"।।
भैया लक्ष्मण! मेरी सांप और छुछूंदर वाली स्थिति हो गई, हां भैया!!
"भई गति सांप छुछूंदरि केरी"!!
"भई गति सांप छुछूंदरि केरी"!!..
जय सियाराम, जय जय हनुमान।
जय सियाराम, जय जय हनुमान।।
ऊं तत्सत...
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