श्री गंगालहरी - Kashi Patrika

श्री गंगालहरी


श्री गंगालहरी 

पुरो धावं धावं  द्रविणमदिराघूर्णितदृशां
महीपानां नानातरुणतरखेदस्य नियतं ।
ममैवायं मंतुः स्वहितशतहन्तुर्जडधियो 
वियोगस्ते मातर्यदिह करुणातः क्षणमपि॥ १९॥

मरुल्लीलालोलल्लह रिलुलिताम्भोजपटली-  
स्खलत्पांसुव्रातच्छुरणविसरत्कौडंकुमरुचि।
सुरस्त्रीवक्षोजक्षरदगरुजम्बालजटिलं
जलं ते ज्मबालं मम जननजालं जरयतु ॥ २०॥


आज हम श्री गंगालहरी के दो और श्लोकों को प्रकाशित कर रहे हैं। 

- संपादक की कलम से 

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