भारत की समृद्ध कला परंपरा में लोक कलाओं का गहरा रंग है। काश्मीर से कन्या कुमारी तक इस कला की अमरबेल फैली हुई है। महाराष्ट्र भी इससे अछूता नहीँ है, यहां के आदिवासी जाति की कला है "वर्ली"।
महाराष्ट्र के ठाणे जिले के आसपास दामु और तालासेरि तालुके में रहने वाली वर्ली नामक आदिवासी जनजाति के नाम पर ही इस पारंपरिक कला को "वर्ली पेंटिंग" कहा जाता है, क्योंकि भित्ति चित्र की यह शैली महाराष्ट्र की इसी जनजाति की परंपराओं और रीति-रिवाजों से जुड़ी है। महाराष्ट्र का यह क्षेत्र उत्तरी और पश्चिमी दिशा के सह्याद्री पर्वतमालाओं के बीच स्थित है। यहां के लोगों की आजीविका का मुख्य आधार कृषि है। ये बहुत मेहनती होते हैं, जो बांस, लकड़ी, घास एवं मिट्टी, टाइलस से बनी झोपड़ियों में रहते हैं। झोपड़ियों की दीवारें लाल काडू मिट्टी एवं बांस से बांध कर बनाई जाती है। दीवारों को पहले लाल मिट्टी से लेपा जाता है, उसके बाद ऊपर से गाय के गोबर से लिपाई की जाती है।
पढ़ने-लिखने से पहले विकसित हुई कला
वर्ली लोक कला कितनी पुरानी है यह कहना कठिन है । कला में कहानियों को चित्रित किया गया है, इससे अनुमान होता है कि इसका प्रारंभ लिखने-पढ़ने की कला से भी पहले हो चुका होगा। पुरातत्व वेत्ताओं का विश्वास है कि यह कला दसवीं शताब्दी में लोकप्रिय हुई। इस क्षेत्र पर हिन्दू, मुस्लिम, पुर्तगाली और अंग्रज़ी शासकों ने राज्य किया और सभी ने इसे प्रोत्साहित किया। सत्रहवें दशक से इसकी लोकप्रियता का एक नया युग प्रारंभ हुआ, जब इनको बाजार में लाया गया।
वर्ली के बिन विवाह अधूरा
वर्ली कलाकृतियाँ विवाह के समय विशेष रूप से बनायी जाती थीं। इन्हें शुभ माना जाता था और इसके बिना विवाह को अधूरा समझा जाता था। प्रकृति की प्रेमी यह जनजाति अपना प्रकृति प्रेम वरली कला में बड़ी गहराई से चित्रित करती हैं। त्रिकोण आकृतियों में ढले आदमी और जानवर, रेखाओं में चित्रित हाथ पाँव तथा ज्यामिति की तरह बिन्दु और रेखाओं से बने इन चित्रों को महिलाएँ घर में मिट्टी की दीवारों पर बनती थीं।
आम जीवन से प्रेरित
एक विशेषता इस कला में यह होती है कि इसमे सीधी रेखा कहीं नजर नहीं आएगी। बिन्दु से बिन्दु ही जोड़ कर रेखा खींची जाती है। इन्हीं के सहारे आदमी, प्राणी और पेड़-पौधों की सारी गतिविधियाँ प्रदर्शित की जाति है। विवाह, पुरूष, स्त्री, बच्चे, पेड़-पौधे, पशु-पक्षी और खेत आदि आम जीवन ही इन कलाकृतियों के विषय होते हैं। सामाजिक गतिविधियों को गोबर-मिट्टी से लेपी हुई सतह पर चावल के आटे के पानी में पानी मिला कर बनाए गए घोल से रंगा जाता है। सामाजिक अवसरों के अतिरिक्त दिवाली, होली के उत्सवों पर भी घर की बाहरी दीवारों पर चौक बनाए जाते हैं। यह सारे त्योहार खेतों में कटाई के समय ही आते हैं, इसलिए इस समय कला में भी ताजे चावल का आटा इस्तेमाल किया जाता है। रंगने का काम अभी भी पौधों की छोटी-छोटी तीलियों से ही किया जाता है। दो चित्रों में अच्छा खासा अंतर होता है। एक-एक चित्र अलग-अलग घटनाएं दर्शाती है।
आधुनिकता का पुट
वर्ली कला को ख्याति दिलाने में और उसे व्यवहारिक रूप देने में माश नामक व्यक्ति का विशेष योगदान माना जाता है। उन्होंने वर्ली लोककला को महाराष्ट्र से बाहर ले जाने की हिम्मत दिखाई और इस कला में अनेक प्रयोग किए। माश ने लोक कथाओं के साथ-साथ पौराणिक कथाओं को भी वर्ली शैली में चित्रित किया। वाघदेव, धरती माँ और पांडुराजा के जीवन काल को भी वर्ली शैली में चित्रित किया। इसके साथ ही वर्ली में आधुनिकता का समावेश भी किया। मिट्टी और गोंद के मिश्रण के साथ-साथ अपना काम ज्यादा टिकाऊ बनाने के लिए उन्होंने ब्रुश और औद्योगिक गोंद का प्रयोग किया। इस प्रयोग से वर्ली कलाकृतियों को नये आयाम मिले और उनकी अंतार्राष्ट्रीय लोकप्रियता बढ़ने के साथ ही वर्ली जन जाति का आर्थिक स्तर भी सुधरने लगा।
घर की गोबर मिट्टी की साथ वाली दीवार से जन्मी वर्ली कला अब कागज और कैनवस पर उकेरी जा रही है और कलाकार नित नया रूप गढ़ रहे हैं।
(चित्र साभार)
-सोनी सिंह
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