बेबाक हस्तक्षेप - Kashi Patrika

बेबाक हस्तक्षेप

देश की प्रगति में सबसे बड़े बाधक पहले भी सरकारी दफ्तर रहें है और आज भी अमूमन वही भेड़चाल व्यवस्था कायम है। आमजन एक बार अगर किसी काम से सरकारी दफ्तर चला गया तो चक्कर लगाने का वो सिलसिला शुरू हो जाता है कि जब तक कुछ खिलाया-पिलाया न जाए काम पूरा नहीं होता। लोगों के जहन में जो तस्वीर सरकारी दफ्तरों की रही है लोग आज भी उससे बावाफ्ता है। लगभग हर चीज का रेट फिक्स हो रक्खा है और उसी के इर्द गिर्द हर व्यवस्था तैयार है और आगे भी तैयार हो रही है । २०१४ में जब सरकार बदली तो मोदी इसी आधार पर चुने गए की सरकारी तंत्र में कुछ तो गतिशीलता दिखेगी। 

पर इस मुद्दे पर सरकार अभी तक पूर्ण रूप से विपल ही है। उत्तर प्रदेश के चुनावों में बीजेपी ने इस मुद्दे को खूब भुनाया और जनमानस में ये सन्देश दिया की केंद्र सरकार तो काम कर रही है पर राज्य की शासन और सरकारी व्यवस्था ध्वस्त है। अब जब योगी सरकार को आए एक साल हो गए और केंद्र सरकार अपने कार्यकाल समाप्ति की और बढ़ रही है तो इस बार बीजेपी किस आधार पर वोट मांगेगी ये जनता में कौतुहल का विषय है। 

सरकार की सबसे बड़ी व्यवस्थाओं में सम्मलित स्वरोजगार योजना का भी वही हाल है जो और विभागों का है। व्यापारी या एंटरप्रेन्योर अगर एक बार किसी प्रक्रिया का हिस्सा बनते है तो फिर वही तंत्र शुरू हो जाता है। हर विभाग से स्वीकृति लेने में चक्कर पे चक्कर लगाकर लोग अपना काम भगवान् भरोसे छोड़ना ज्यादा पसंद करते है बनिमत इसके की उन्हें अपनी सरकारी व्यवस्था पर विश्वास हो कि काम आज नहीं तो कल पूरा हो जायेगा। जनसाधारण की ये अवधारणा और परिपुष्ट होती जा रही है कि अगर काम करवाना है तो रास्ता करप्शन का ही हैं। 

आज के इस कम्पटीशन के दौर में जहाँ पूरा विश्व कार्यप्रणाली को दुरुस्त और इंटरनेट के माध्यम से कार्यों को सुगम बना रहें है वही भारत में इंटरनेट के माध्यम से सरकारी व्यवस्था को इस तरह जोड़ा जा रहा है कि सरकारी दफ्तरों की भीड़ कम हो और सरकारी मुलाजिम आराम फरमाने की आदत में इजाफा कर सके। कार्य पहले भी नहीं होता था और अब भी न के बराबर ही हो रहा है जबतक आप सरकारी बाबुओं का हाथ गरम नहीं करते। 

बड़ी संख्या में लोगो का कहना और ये मानना ठीक ही प्रतीत होता है कि सरकारी व्यवस्था का अंग बनने से अच्छा है उस से दूर ही रहा जाए। 

(ये लेखक के निजी विचार है )

- सम्पादकीय 

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