व्यवसायिक पत्रकारिता के दौर में ईमानदार पत्रकारों की डगर मुश्किलों भरी होती है, बावजूद इसके अपनी लेखनी से न सिर्फ लोगों को जोड़े रखने, बल्कि हिंदी भाषा के सौंदर्य को कायम रखने में निरंतर प्रयासरत 'विमल मिश्र' मुंबई की पत्रकारिता में किसी पहचान के मोहताज नहीँ हैं। बनारस उनकी जन्मभूमि ही नहीँ रही, गंगा किनारे बड़े हुए और शिक्षा-दीक्षा भी काशी से ही हुई। बनारस के "आज" अखबार से विमल मिश्र ने अपने पत्रकारीय सफर की शुरुआत की और तीन दशक से वे "मुंबई नवभारत टाइम्स" से जुड़े हुए हैं।
मुंबई जैसे शहर में हिंदी भाषी पत्रकार द्वारा पहचान बना पाना उनके सरल व्यक्तित्व और प्रखर लेखनी का ही दमखम है। यही वजह है कि मुंबई ने उन्हें अपनाया ही नहीँ, कई सम्मान भी दिए। हाल ही में श्रेष्ठ पत्रकारिता के लिए उन्हें "देवर्षि नारद सम्मान-2018 (राष्ट्रीय भाषा पत्रकार)" के लिए चयनित किया गया है। 4 मई को माटुंगा जिमखाना के वेलिंगकर महाविद्यालय सभागृह में उनको केंद्रीय मंत्री नितिन गडकरी के हाथों यह पुरस्कार प्रदान किया जाएगा।
बनारस हिंदू विश्वविद्यालय से "एमकॉम" जैसा कमाऊ कोर्स करने के बाद राष्ट्र-समाज में लेखनी से बदलाव का कीड़ा उनके अंदर कुलबुलाया और बीएचयू से बीजे कर लिया। अंग्रेजी भाषा पर मजबूत पकड़ होते हुए भी हिंदी को अपनी कर्मभूमि बनाने का कठिन निर्णय लेना विमल मिश्र जैसे सरल व्यक्ति की ही क्षमता हो सकती है। वे बताते हैं, "एमकॉम के संगी-साथी बड़ी कंपनियों से जुड़ गए और पैसा बनाने लगे। मैंने 1980-81 में बीएचयू से बीजे किया, फिर "आज" अखबार से जुड़ गया। करीब 500 रुपए पारितोषिक मिला करता था, वह भी निश्चित नहीँ था। नौकरी भी पक्की नहीँ हुई थी, पर संघर्ष चल रहा था, क्योंकि पत्रकारिता मेरे लिए मिशन था। इस तरह दो वर्ष बीत गए।" आगे बताते हैं, "उसी दौरान बनारस में पायनियर आया और मुझे जुड़ने का ऑफर मिला। पायनियर की ऑफिस होकर आए, तो यह बात "आज" के दफ्तर मुझसे पहले पहुंच गई और रातोंरात कई वरिष्ठों की अनदेखी कर मेरा मेहनताना ही नहीं बढ़ा दिया गया, बल्कि नौकरी भी पक्की (वेज बोर्ड) कर दी गई।"
करीब पांच साल विमलजी आज अखबार से जुड़े रहे। 1987 में 'मुंबई नवभारत टाइम्स' से जुड़े और यह साथ आज तक बना हुआ है। इस दौरान मुख्य संवाददाता (चीफ रिपोर्टर) जैसे महत्वपूर्ण पद पर रहे और पत्रकारिता के बदलते दौर के गवाह भी बने। इस समय वह अखबार के संडे एडिटर हैं। करीब चार दशक के अपने करियर में कई उलझनों को पार किया और कई दफे अपनी ईमानदारी की कीमत भी चुकाई, लेकिन उन्होंने कभी समझौता नहीँ किया। आज भी पूर्ण निष्ठा और समर्पण से अपने काम में जुटे हुए हैं। अपनी स्टोरी के लिए आज भी वे मुंबई और आसपास की खाक छानते हैं। वहीँ उत्सुकता, ऊर्जा जो शुरुआती दौर में थी, अब भी कायम है। बनारस के प्रति गहरा लगाव और बनारसी खानपान दिल में संजोए मुंबई में भी काशी ढूंढ ही लेते हैं। गत रविवार उनका संडे नवभारत टाइम्स में छपा आलेख "मुंबई में काशी" इसका नन्हा उदाहरण है।
अपने-पराए के भेदभाव से परे सबके लिए आदर और अपनत्व का भाव ही विमल मिश्र का व्यक्तित्व है और उनकी लेखन शैली उनकी विशेषता। फिर बात उनकी लिखी किताब "मुंबई लोकल" (प्रकाशित 2008) की हो या संडे नवभारत टाइम्स में उनके लेख या कॉलम "लोग" की या सोमवारीय 'कम्युनिटी कनेक्ट' की। जानकारी से लबालब, लोगों को जोड़ने का प्रयास, शब्दों की खूबसूरत जुगलबंदी और सम-सामयिकता से निकटता, यहीँ उनकी खूबी है और शायद काम के प्रति उनकी प्रतिबद्धता। विमल मिश्र के कठिन परिश्रम और सरलता का ही परिणाम है कि मुंबई की विविध भाषीय संस्कृति में उन्हें समभाव सम्मान मिला। अब तक उन्हें करीब 17 सम्मान मिल चुके हैं, जिनमें 'मदर टेरेसा अवार्ड' और 'महाराष्ट्र साहित्य अकादमी' जैसे महत्वपूर्ण सम्मान समाहित हैं। समाज के गिरते-बदलते-फिसलते मूल्यों के बीच अपनी कलम से कम्युनिटी को बांधे रखने की अथक मेहनत और समाज को कुछ सकारात्मक देने की वचनबद्धता उन्हें काशी-मुंबई दोनों का गौरव ही नहीँ बनाता, बल्कि खालिस आदमी भी करार देता है, जिसे आज की दौर में तलाशना मुश्किल है।
-सोनी सिंह
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