जिस प्रकार रोजगार की समस्या २०१९ में मुख्य चुनावी मुद्दा बनने जा रही है उसी प्रकार से स्वर्ण और दलित के मुद्दे को भी राजनैतिक पार्टिया २०१९ के केंद्रीय चुनाव का मुद्दा बनाने की चेष्टा में है। इन सब के बीच राम मंदिर का मुद्दा व् ट्रिपल तलाक का मुद्दा और सुप्रीप कोर्ट के जजों का मुद्दा।
मुद्दा बस मुद्दा...
इस तरह से सरकार चलाने के लिए लोगो ने मोदी जी को प्रधानमंत्री के रूप में नहीं चुना था। लोगो को उनमे गुजरात के कुशल राजनैतिज्ञ और कठोर फैसले लेने वाले नेता के रूप में उभरते भारत की नीव दिखाई पड़ी, इसलिए प्रधानमंत्री की कुर्सी पर बैठाया था।
आज स्थिति बाद से बदतर होती जा रही है जहा हर जगह कांग्रेस हार रही है वही लगता ऐसा है की केंद्र की सरकार बदली ही नहीं वो अब भी कांग्रेस ही है जो मुद्दे तय करती है।
स्वर्णो को आर्थिक आधार पर उनका हक़ दिलवाने के बजाये इसे राजनैतिक मुद्दों में ऐसा उलझा दिया गया है की आज देश पुनः ८० -९० के दशक में प्रवेश कर रहा है जब चहुओर भुखमरी और लाचारी थी।
देश की सरकार २०१९ में भले ही बदल जाए या भाजपा पुनः सत्ता में वापस आ जाए मुझे नहीं लगता स्वर्णो की स्थिति कही भी बदलने वाली है इनके लिए यही अच्छा होगा की वो चुनावों में बड़े पैमाने पर वोट न करे क्योकि कोई भी दल उनके हक़ के लिए लड़ने को तैयार नहीं है।
इतना जरूर है कि अगर वो संगठित हो गए तो सरकार जरूर बदल जाएगी और सत्ता का प्रारूप भी।
- संपादक की कलम से
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