किताबों का बंडल
अभी बनारस में बच्चों के परीक्षा परिणाम निकले है और अगले क्लास की किताबों की लिस्ट भी अभिभावकों को पकड़ा दी गयी है। अभिभावक बच्चों के साथ संभावित किताब की दुकान पर लिस्ट पकड़े खड़े हैं। किताबें बिक चुकि है, लिस्ट में कुच्छ मिली और कुच्छ बाद में लेनी होंगी। बच्चों की फ़ीस 4000 की सीमा पार कर चुकी है, किताबों के बंडल की कीमत भी 5000 से कम नहीं है वो भी दो और तीन में पढ़ने वाले बच्चों की।
अभिभावक दुकान पर खड़े हैं और अपने किताबों के बंडल का तनमयता से इंतज़ार कर रहे हैं। महिलाएं अपने-अपने पतियों के बारे में बता रही है के आदमी लोग कहाँ इतना इंतज़ार करने वाले हैं लड़ाई ही कर लें तभी वो ख़ुद आतीं हैं। तरह तरह की बाते हो रही है। एक अंग्रेजी माध्यम की अध्यापिका भी हैं, स्वम हिंदी में बात कर रही है, किताब की पर्ची पर स्कूल की तरफ़ से अभिभावकों से अपेक्षित है के बच्चों से अंग्रेजी में ही बात करें। लगभग सारे बच्चे जो दुकान पर माता और उनसे आधी संख्या में आये पिता के साथ है वो भी हिंदी में ही बातें कर रहे हैं।
महँगी से महँगी होती जा रही यह व्यवस्था आखिर दे क्या रही है, कॉन्वेंट स्कूल आखिर इसका उद्देश्य पैसे कमाना नहीं है तो है क्या, अभिभावक अपनी आर्थिक स्थिति के हीसाब से स्कूल चुन रहे हैं शिक्षा और शिक्षक का स्तर की चिंता क्यूँ नहीं। महँगी फ़ीस अच्छी शिक्षा का पर्याय मान ली गयी है। व्यव्साय हर साल चले इसलिए एक ही क्लास की किताबें दुबारा उसी स्कूल के अगले साल एडमिशन लेने वाले बच्चों के काम नहीं आतीं उन्हें दोबारा खरीदनी होती है।
यह किस तरह की शिक्षा व्यवस्था पर हम पैसे ख़र्च करने लगे है। कुकुरमुत्ते की तरह हर गली और नुक्कड़ पर मरियम कान्वेंट स्कूल से लेकर बड़े बड़े कान्वेंट स्कूल से निकलने वाले अंग्रेजी बोल सकने में असमर्थ , अंग्रेजी सीखने के लिए इंग्लिश स्पोकन कोर्स के लिए दौड़ते बच्चे। विद्यार्थी के जीवन निर्माता भरतीय शिक्षा व्यवस्था को तिलांजली और अंग्रेजी मध्यम के नाम पर किसी दौड़ में भाग लेते माता-पिता, पहनावे से अंग्रेज दिखते बच्चे और भाषा के नाम पर दोनों में ही कच्चे और कमज़ोर।
सरकार तो सरकारी स्कूल को संभाल सकें ऐसी स्थिति में भी नहीं दिख रही। बेमन से सरकारी तंत्र हर जगह बस चल रही है, उससे कोई उम्मीद भी क्या करे।
- अदिति सिंह
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