श्री गंगालहरी - Kashi Patrika

श्री गंगालहरी


श्री गंगालहरी 

विलीनो वै वैवस्वतनगरकोलाहलभरो
गता दूता दूरं क्वचिदपि परेतां मृगयितुं ।
विमानानां व्रातो विदलयति वीथिर्दि विषदां
कथा ते कल्याणी यदवधि महीमण्डलमगातं ॥ २५॥



स्फुरत्कामक्रोधप्रबलतरसञ्जातजटिल -  
ज्वरज्वालाजालज्वलितवपुषां नः प्रतिदिनं।  
हरन्तां सन्तापं कमिप मरुदुल्लासल्हरि -
च्छटाचञ्चत्पाथःकणसरणयो दिव्यसरितः ॥ २६॥
 
आज हम श्री गंगालहरी के दो और श्लोकों को प्रकासित कर रहें हैं।

- संपादक की कलम से 


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