श्री गंगालहरी - Kashi Patrika

श्री गंगालहरी


श्री गंगालहरी 

इदं हि ब्रह्माण्डं सकलभुवनाभोगभवनं 
तरङ्गैर्यस्यान्तर्लुठति परितस्तिन्दुकमिव।  
स एष श्रीकण्ठप्रविततजजटाजूटजटिलो
जलानां सङ्घातस्तव जननि तापं हरतु नः ॥ २७॥

त्रपन्ते तीर्थानि त्वरितमिह यस्योद्धृतिविधौ  
करं कर्ने कुर्वन्त्यपि किल कपालिप्रभृतयः।
इमं त्वं मामंब त्वमियमनुकम्पार्द्रहृदये 
पुनाना सर्वेषामघमथनदर्पं दलयसि  ॥ २८॥

आज हम श्री गंगालहरी के दो और श्लोकों को प्रकाशित कर रहें हैं। 

- संपादक की कलम से 

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