भारत से बाहर किसी देश में एक नवदम्पति के घर बच्चे ने जन्म लिया। बच्चे की देख भाल माँ-बाप दोनों ही मिल कर कर रहे थे। साथ ही देख भाल में एक आया भी लगी रहती। माता-पिता दोनो ही नौकरी में थे। बच्चा कई आया की देख रेख में पला। वक्त बीतते देर कब हुई है। बच्चा भी अब कामकाजी बन गया। घर के तीनों सदस्य ही ताला बंद कर अपने-अपने काम पर पहुँचते। लौट कर इतने थके मिलते की किसने क्या और कितना खाया कोई नहीं पूछ पाता। फ़ोन पर ही बच्चा अपने घर न आने की बात बता कर फ़ोन रख देता। फ़िर घर में बहु आयी। बेटा-बहु अपने निजी घर में चले गए। सब रविवार को इकठे होते औऱ हाल-चाल लेते। शुक्रवार को चर्च में इकठ्ठे जाते। वहाँ ऐसी ही सामाजिक व्यवस्था है।
यही भारत में एक परिवार जिसमें बच्चों की माँ अपना दफ्तर छोड़ घर में बैठ जाती है। सारा समय ही बच्चों को देने का प्रयास करती है। और अपना जीवन खापा कर बदले में उसके हाथ भी खाली नहीं जाते। अब,जब तक माँ है, उसका निर्णय ही बच्चों का होता है। आजीवन अपना अधिकार अपने बच्चों पर साधती है। बहु को बताना नहीं होता के तुम्हारे होते माँ को अब रसोई न करनी पड़े।विवाह के बाद भी बच्चा फ़िल्म देखने जाने को माँ से पूछता है औऱ चुकी पड़ोस की दुबाईंन आने को है तो बड़े हक़ से बहु को साथ न ले जाने को कह देती हैं।
जहाँ लोग कहते हैं के बुढापा तो दुःखदायी है, भारत में तो वृद्ध शरीर सेवा पाता है।माँ अब बहु नहीं खुद सास है औऱ उसने अपने चलने-फिरने की अवस्था रहते ख़ूब सेवा की अब उसकी होगी।
किसी समाज में व्यवस्था बस इस लिए बुरी बनती है के उससे निज को शरीर खटाना पड़ता हैं, मन को परिवार के काम में लगाना पड़ता है, क्या सही है। मन आसमान में उड़ती फिरे वो नही होती उसे तो तपा कर ज़मीन पर चलना सीखना ही होता है।
अदिति
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