गपशप
का हो लोगन कइसन हउअ जा बाल बच्चा सब मस्ती में और सुनावल जाए। आज हमनी वेर का पेड़ लगावे के बारे में बात करल जाइ। रोज रोज जे हम पेड़ लगावे के बारे बात करत है त घबराबा नहीं जितना हो पाई उतने पेड़ लगावल जाइ। बस पैसा जुटावल जा लोगन और जगह खोजले रहा। इदा पारी हमनी काशी के कहे वाला आनन् कानन नहीं सही का आनन् कानन बनावल जाइ। हमके याद ह बचपन में जब हम पानी टंकी घूमे जात रहली त उहाँ पे बहुत से बेर का पेड़ रहल।
बेर का खासियत ह की एक बार अगर उगा लेला त फिर बरसाते के पानी पे जिन्दा रह के हमनी के आपन मीठा फल खिलावत रही। बेर में सूखे से लड़े का गुण होला और ई पेड़ बहुउपयोगी होला। एकड़ पत्ता जानवर लोगन के खियावे में काम आई और छटाई से मिलल टहनी से खेतन के मेड़ लगावे के काम आई।
बाकी मिले पे।
- बाबा सुतनखु
एपर लिखल कविता भी पढ़ ल लोगन ...
बेर का पेड़ / आरसी चौहान
मेरा बचपन
खरगोश के बाल की तरह
नहीं रहा मुलायम
न ही कछुवे की पीठ की तरह
कठोर ही
हाँ, मेरा बचपन
ज़रूर गुज़रा है
मुर्दहिया, भीटा और
मोती बाबा की बारी में
बीनते हुए महुआ, आम
और जामुन
दादी बताती थीं
इन बागीचों में
ठाढ़ दोपहरिया में
घूमते हैं भूत-प्रेत
भेष बदल-बदल
और पकड़ने पर
छोड़ते नहीं महिनों
कथा किंवदंतियों से गुज़रते
आखिर पहुँच ही जाते हम
खेत-खलिहान लाँघते बाग़ीचे
दादी की बातों को करते अनसुना
आज स्मृतियों के कैनवास पर
अचानक उभर आया है
एक बेर का पेड़
जिसके नीचे गुज़रा है
मेरे बचपन का कुछ अंश
स्कूल की छुट्टी के बाद
पेड़ के नीचे
टकटकी लगाए नेपते रहते
किसी बेर के गिरने की या
चलाते अन्धाधुन्ध ढेला, लबदा
कहीं का ढेला
कहीं का बेर
फिर लूटने का उपक्रम
यहाँ बेर मारने वाला नहीं
बल्कि लूटने वाला होता विजयी
कई बार तो होश ही नहीं रहता
कि सिर पर
कितने बेर गिरे
या किधर से आ लगे
ढेला या लबदा
आज कविता में ही
बता रहा हूँ कि मुझे एक बार
लगा था ढेला सिर पर टन्न-सा
और उग आया था गुमड़
या बन गया था ढेला-सा दूसरा
बेर के खट्टे-मीठे फल के आगे
सब फीका रहा भाई
यह बात आज तक
माँ-बाप को नहीं बताई
हाँ, वे इस कविता को
पढ़ने के बाद ही
जान पाएँगे कि बचपन में
लगा था बेर के चक्कर में
मुझे एक ढेला
खट्टा, चटपटा और
पता नहीं कैसा-कैसा
और अब यह कि
हमारे बच्चों को तो
ढेला लगने पर भी
नहीं मिलता बेर
जबसे फैला है बाज़ार
बहेलिए वाला कबूतरी जाल
ज़मीन से आसमान तक एकछत्र।
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