एक बृद्ध अपने बुढ़ापे पर हर दिन रोता रहता था। आने जाने वालों से अपने जवानी के किस्से सुनता नहीं थकता था। वह कितना रसूक वाला था, कितनो का रुका काम उसने चुटकियों में करवा दिया। कितनो का बेड़ा पार लगवाया। उसके दवाज़े पर मांगने वालों की जितनी भी भीड़ हो वह सबको ही कुच्छ न कुच्छ देता ही था। औऱ अब जब कि उम्र में नब्बे का हो चला है उसका शरीर निर्बल है और लोगों का आना भी कम हो गया है। न तो कोई अपनी समस्या लेकर ही आता है और न ही जिनकी समस्या मैंने हल की थी वो ही मिलना पसन्द करते है। हाय रे दुनियां!! सबका किया भुला देती है।
एक रोज़ एक संत दवाज़े पर पहुँचा औऱ कुच्छ खाने का हो तो आग्रहपूर्व भोजन कराने को कहता है। बूढ़ा दरवाज़े पर बैठा था वह तुरंत ही कुच्छ रुपये संत को देने लगा , तब संत मुस्कराते हुए कहता है के इन पैसों से मोह बड़ी मुश्कि से जाता है अब इसकी आदत नहीं है बाबा, कुच्छ भोजन कराएं। बृद्ध ने देखा संत की उम्र कुछ ज़्यादा न थी , तपाक से बोला 'इस उम्र में जहां तुमको दूसरों की सेवा करनी थी वहां तुम ख़ुद के लिय ही मांग रहे हो।' संत सौम्यता से उत्तर देता है, ' बाबा जो सबकी सेवा करता है उसकी ही तो सेवा कर रहा हूँ,आख़िर जब शरीर काम करना बंद करदेगा तब कौन जानने वाला होगा मेरा,मेरे प्रभु के अलावा। मन रमता है तो शरीर झक मार कर पीछे दौड़ता है।'
बूढ़े को बात समझ गयी। उसने अपना मन भी राममय करलिया।
-अदिति-
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